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साहित्य का इतिहास-दर्शन

स्पेंसर और मिल्टन को अपनी भाषा में लिखने में हुई थी।...प्रारंभिक भाषा-कवियों ने बड़ा साहस किया और उन्हें सफलता मिली।"[१]

(ग)"सोलहवीं तथा सत्रहवीं शती हिंदुस्तानी भाषा-साहित्य का श्रेष्ठ युग है। इस देश का प्रायः प्रत्येक महान् साहित्यकार इसी युग में हुआ। इसके महान् लेखक एलिजाबेथयुगीन हमारे महान् लेखकों के समकालीन थे। हम अँगरेजों को यह जानना बड़ा मनोरंजक होगा कि जब हमारा देश राजदूतों के द्वारा प्रथम बार मुगल-दरबार से संबद्ध हुआ, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई और दोनों जातियाँ जब जल और स्थल के कारण इतनी पृथक् और दूरस्थ थीं, उस समय दोनों राष्ट्र अपने साहित्यिक गौरव के चरम शिखर पर पहुँच गये थे।"[२]...

(घ)"जिस समय वल्लभाचार्य के अनुयायी व्रज को स्वसंगीत से मुखरित कर रहे थे, अनतिदूर पर स्थित दिल्ली के मुगल-दरबार ने राज-कवियों का एक मंडल ही एकत्र कर लिया था, जिसमें से कुछ साधारण प्रसिद्धि के ही कवि नहीं थे। टोडरमल, जो महान् अर्थ-मंत्री होने के अतिरिक्त उर्दू भाषा के तात्कालिक स्वीकरण के कारण थे, बीरबल, जो अकबर के मित्र और अनेक चमत्कारपूर्ण आशु-कविताओं के रचयिता थे, अब्दुर्रहीम खानखाना और आमेर के मानसिंह, ये सब स्वयं भाषा के लेखक होने की अपेक्षा भाषा-कवियों के आश्रयदाता होने की दृष्टि से अधिक प्रख्यात हैं, किंतु नरहरि, हरिनाथ, करना और गंग अत्यंत उच्च कोटि के कवि समझे जाते हैं, जो उचित ही है।"[३]

(ङ)"राम का गुणानुवाद करनेवाले सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास (उपस्थित १६०० ई॰, मृत १६२४ ई॰) इन कवियों के मध्य में एक ऐसे स्थान को सुशोभित करते हैं, जो सर्वथा उनके ही योग्य है। चारों ओर से शिष्यों और अनुयायियों से घिरे रहनेवाले व्रज के वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्त्तकों से कहीं भिन्न वे बनारस में अपने यशो-मंदिर में अकेले ही इतने उच्चासीन थे, जहां कोई पहुँच ही नहीं सकता...। शतियों के तरु-राजि-वेष्टित आंतर पथ से पीछे दृश्यावलोकन करने पर हमें अपने उज्ज्वल प्रकाश में खड़ी हुई उनकी उदात्त प्रतिभा हिंदुस्तान के रक्षक और पथ-प्रदर्शक के रूप में दिखाई देती है। जब हम तंत्रारोहित बंगाल के भाग्य के संबंध में, अथवा रात्रि के उत्सव के रूप में मनाई जानेवाली उन चंचल यात्राओं के संबंध में सोचते हैं, जो कृष्ण-भक्ति के नाम पर निकाली जाती हैं, तब हम निश्चय ही और उचित रूप में इस महापुरुष की प्रशंसा करते हैं, जिसने बुद्ध के अनंतर पहली बार मनुष्य को अपने पड़ोसियों के प्रति स्व-कर्त्तव्य सिखाया और अपने उपदेश को ग्रहण कराने में पूर्ण सफल भी हुआ।"[४]

(च)"यह महान् काल सूर की शृंगारी कविताओं और तुलसी की प्रकृति-संबंधी कविताओं का ही युग नहीं था। यह काव्य-कला को सुव्यवस्थित करनेवाले प्रथम प्रयास के कारण भी यशःप्राप्त है।...सूरदास और तुलसीदास में तो देवों की-सी शक्ति थी और अपने समसामयिकों से वे परिष्कार और अनुपात-ज्ञान में बहुत आगे थे,

  1. उपरिवत्, पृ॰ १२ ।
  2. उपरिवत्, पृ॰ १२।
  3. उपरिवत्, पृपृ॰ ५३-५४ ।
  4. उपरिवत्, पृ॰ ५३।