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साहित्य का उद्देश्य

रही है। भौजी हमेशा 'बोलइ विष बोल करेजवा मे साल' यानी ऐसे तीखे बचन बोलती है जो हृदय मे शूल पैदा कर देते हैं। 'ननदिया' हमेशा 'विष बोले । एक गीत मे सीता और उसकी ननद पानी भरने के लिए जाती है। ननद भावज से कहती है-रावन की तस्वीर खीचकर दिखा दे । भावज कहती है-राम सुन पायेगे, तो मेरे प्राण ही ले लेगे। ननद कसम खाती है कि वह भैया से यह बात न कहेगी। भावज चकमे मे आ जाती है और रावन की तस्वीर खींचती है। चित्र आधा ही बन पाया है कि राम आ जाते हैं । सीता चित्र को अचल से छिपा लेती है । इस पर ननद अपने बचन का जरा भी लिहाज नही करती और भाई से कह देती है कि यह तो 'रवना उरे हैं।' जो रावन तुम्हारा बैरी है, उसी की यहा तस्वीर बनाई जाती है । ऐसी औरत क्या घर मे रखने योग्य है । राम तरह-तरह के हीले करते हैं; पर ननद राम के पीछे पड़ जाती है । आखिर हार कर राम सीता को घर से निकाल देते है। ननद का ऐसा अभिनय देखकर किस भावज को उससे घृणा न हो जायगी।

मगर इसके साथ ही ग्राम्य गीतो में स्त्री-पुरुषों के प्रेम, सास-ससुर के आदर, पति पत्नी के ब्रत और त्याग के भी ऐसे मनोहर चित्रण मिलते हैं कि चित्त मुग्भ हो जाता है। अगर कोई ऐसी युक्ति होती, जिससे विष और सुधा को अलग-अलग किया जा सकता और हम विष को अग्नि की भेट करके सुधा का पान करते तो समाज का कितना कल्याण होता।

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