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साहित्य-सीकर

समझ सकें तो समझने की चेष्टा करें। हमारा ख्याल तो है कि अपनी भाषा और अपनी लिपि के स्वीकार और ज्ञान से देश प्रेम बढ़ता है और उसके अस्वीकार अथवा त्याग से वह घटता है। इस दशा में अपनी लिपि से सम्बन्ध छोड़ना या छुड़ा देना देश के कल्याण का विघातक है। कबायद-परेड वगैरह की फौजी पुस्तकों में भाषायें तो देशी ही रहेंगी, लिपि-मात्र रोमन हो जायगी। इस कारण सैनिकों का लगाव अपनी लिपि से छूट जायगा। जो लोग फौज में भरती होकर ही कुछ लिखना पढ़ना सीखेंगे वे रोमन अक्षरों में छपी हुई कवायद की किताबें तो पढ़ ही लेंगे; पर अपने धर्म-कर्म की रामायण आदि भी न पढ़ सकेंगे। इससे उनकी कितनी हानि होगी, इसकी नाप-तोल करने की जरूरत नहीं। वह सर्वथा अनुमान-गम्य है। रोमन अक्षरों में अनेक दोष है। उनमें इस देश की भाषायें अच्छी तरह लिखी भी नहीं जा सकतीं। उनके द्वारा यहाँ की बोलचाल के कितने ही शब्दों के उच्चारण ठीक-ठीक व्यक्त ही नहीं हो सकते। अतएव इस नई घटना से सरकार और सरकारी फौज के अफसरों का चाहे जो लाभ हो, सैनिकों की सर्वथा ही हानि है। फौजी अफसर इस देश की लिपियाँ बहुधा नहीं पढ़ सकते। रोमन लिपि में छपी हुई पुस्तकें वे अवश्य से आसानी से पढ़ सकेंगे और इस बात का निश्चय कर सकेंगे कि किसी ने, किसी बहाने, कोई काविल-एतराज बात तो उनमें नहीं घुसेड़ दी। इसके सिवा सरकार की इस नई आज्ञा की तह में और भी कारण हो सकते हैं, पर उनका अनुमान करना, न करना, राजनीति विशारदों ही पर छोड़ देना हम उचित समझते हैं।

[जनवरी, १९२८



"मुद्रक—विश्वप्रकाश कला प्रेस, प्रयाग।