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साहित्य-सीकर

धर्म का प्रभाव बढ़ने से संस्कृत भाषा का आदर अधिक होने लगा। इस परिवर्तन ने जन-साधारण की भाषा पर बहुत प्रभाव डाला। उनकी भाषा बदलने लगी। थोड़े ही दिनों में उसने एक नवीन रूप धारण किया। उसी का नाम प्राकृत भाषा है। यह घटना बहुत करके ईसा की चौथी शताब्दी में हुई।

बौद्ध-धर्म का ह्रास होने पर जिस नवीन युग का आविर्भाव हुआ उसमें गुप्त वंश के नरेशों के हाथ में इस देश का आधिपत्य आया। उनके समय की भी कितनी ही लिपियाँ पुरातत्ववेत्ताओं ने खोज निकाली हैं। वे शिलाओं और ताम्रपत्रों पर खुदी हुई हैं। उनकी भाषा में संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण है। उसके बाद की जितनी शिलालिपियाँ और ताम्रपत्र मिले हैं उन सभी में प्राकृत ही भाषा का आधिक्य है। पर उसके पहले की किसी भी लिपि में प्राकृत का पता नहीं। भानुगुप्त नाम का राजा ५१० ईसवी में विद्यमान था। उसके भानजे ने प्राकृत भाषा में कविता की थी और प्राकृत भाषा के व्यवहार सम्बन्ध में कुछ नियम भी बनाये थे। इससे सूचित होता है कि उस समय के पहले प्राकृत भाषा साहित्य में व्यवहृत होने योग्य न हुई थी।

छठीं शताब्दी के नाटकों और जैन-ग्रन्थों में प्राकृत भाषा विकसित और नियमबद्ध रूप में पाई जाती है। एक दिन में कोई भी भाषा विकास को नहीं प्राप्त हो सकती। पाली भाषा के लोप होने और नवीन प्राकृत के बनने में सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। इन कारणों से प्राकृत-भाषा की उत्पत्ति का समय यदि ईसा की चौथी शताब्दी का आरम्भ मान लिया जाय तो असंगति-दोष के लिये बहुत कम जगह रहेगी। छठी शताब्दी के पहले हिन्दुओं के ग्रंथ-समुदाय में कहीं भी प्राकृत भाषा का व्यवहार नहीं देखा जाता। जैन-धर्म के अनुयायी प्रायः सदा ही देशी भाषा का व्यवहार, अपने ग्रंथों में, करते रहे हैं; परन्तु छठीं शताब्दी