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साहित्य-सीकर

बड़े विद्वान्, बड़े विद्याव्यसनी और बड़े पुरातत्वप्रेमी हैं। आपके लेख एशियाटिक सोसाइटी आदि के जर्नलों से निकला करते हैं। आपकी देगनागरी लिपि बड़ी सुन्दर और स्पष्ट होती है। शुद्ध भी होती है। मार्च १९०७ में इस लेखक के पत्र के उत्तर में आपने कृपा करके एक पत्र लिख था! उसके लिफाफे पर अंगरेज़ी के सिवा देवनागरी में भी पता लिखने की आपने कृपा की थी।

जो कुछ यहाँ तक लिखा गया, उससे सिद्ध हुआ कि योरप के विद्वान् यदि अभ्यास करें तो पूर्वी देशों की भाषायें और लिपियाँ उसी तरह लिख सकें जिस तरह की भारतवासी अँगरेज़ी भाषा और रोमन लिपि लिख सकते हैं।

[अगस्त, १९१२


 

 

७—अंगरेजों का साहित्य-प्रेम

हमारे हिन्दी साहित्य की दशा बहुत गिरी हुई है। इसका कारण यह है कि हमारे यहाँ के लेखकों, प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं को यथेष्ट धन प्राप्ति नहीं होती। सर्वसाधारण लोगों में पुस्तक खरीदने और पढ़ने का उत्साह और शौक नहीं के बराबर है। खोटे-खरे की पहचान करने वाले समालोचकों का भी अभाव है। पहले तो अच्छा पुस्तकें लिखी ही नहीं जाती; यदि कोई लिखी भी गई तो लेखक को उसकी मिहनत का भरपूर बदला नहीं मिलता; यहाँ तक कि बेचारे प्रकाशक को अपनी लागत तक वसूल करना मुशकिल हो जाता। पर इँगलैंड की दशा यहाँ की ठीक उलटी है। वहाँ के लेखको, प्रकाशकों और पुस्तक-विक्रेताओं की हमेशा पाँचों घी में रहती हैं। सर्वसाधारण में पुस्तकें खरीदने और पढ़ने का शौक इतना बढ़ा-चढ़ा है कि सिर्फ एक ही दिन में किसी-किसी पुस्तक की हज़ारों कापियाँ बिक जाती हैं।