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पुस्तक-प्रकाशन

भी तो नैराश्यजनक है। एक दो दफे कोई चाहे भले ही इस तरह हानि उठावे, पर बार-बार कोई भी घर का रुपया व्यर्थ न फेंकना चाहेगा। पुस्तक-प्रकाशकों की बात दूसरी है। उनको इस व्यवसाय के दाँव-पेंच मालूम रहते हैं। उनके पास बहुधा निज का छापाखाना भी होता है। इससे पहले तो वे कोई ऐसी पुस्तक लेते ही नहीं जिससे हानि की सम्भावना हो। और यदि हानि हुई भी तो किसी और पुस्तक की विशेष बिक्री से वह हानि पूरी हो जाती है। फिर इन लोगों को विज्ञापन देने के ऐसे-ऐसे ढङ्ग मालूम रहते हैं कि एक कम उपयोगी पुस्तक के लिये भी वे आकाश-पाताल एक कर देते हैं। हजारों पुस्तकें अन्यान्य देशों को भेज देते हैं। कितनी ही कमीशन पर, बिक्री के लिए, दूकानदारों को दे देते हैं। मतलब यह कि पुस्तक बेंचकर उससे यथेष्ट लाभ उठाने के साधनों को काम में लाने में वे कोई कसर नहीं करते।

इँगलैंड के समाचार पत्रों और सामयिक पुस्तकों के सम्पादकों को पुस्तक-प्रकाशकों से बहुत लाभ होता है। अथवा यों कहना चाहिए कि परस्पर एक दूसरे की मदद के बिना उसका काम ही नहीं चल सकता। समाचार पत्रों में पुस्तकों के जो विज्ञापन छपते हैं उनसे उन्हें लाखों रुपये की आमदनी होती है और विज्ञापनों की ही बदौलत प्रकाशकों की पुस्तकें बिकती हैं। इंगलैंड में 'लण्डन-टाइम्स' नाम का एक सब से अधिक प्रभावशाली पत्र है। इस पत्र के मालिकों और इँगलैंड के पुस्तक-प्रकाशकों में, कुछ दिन हुए, अनबन हो गई थी। इस विषय में दोनों पक्षों में घनघोर विवाद ठना। दोनों तरफ से बड़े बड़े लेख लिखे गये। प्रकाशकों ने "टाइम्स" को विज्ञापन देना बन्द कर दिया। जिन प्रकाशकों ने "टाइम्स" ने पहले ही से वर्ष-वर्ष दो-दो वर्ष विज्ञापन छापने का ठेका करके रुपया वसूल कर लिया था, सिर्फ उनके विज्ञापन छपते रहे। बाकी प्रकाशकों ने एका करके