पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/१२७

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१०६ सितार मालिकों इतने उदाहरण लिखने से मेरा आशय यही है कि यह भी गति को बढ़ाने का एक ढंग है । परन्तु आप इन आड़ी-तिरछियों के उदाहरण से कहीं यह न समझ बैठे कि बस इस प्रकार कहीं से भी उठकर कुछ बोलों को दो-दो बार राग में लगने वाले खरों पर बजाने से ही आड़ी-तिरछी बनती है । आड़ी तिरछी का मुख्य अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार राग में बराबर की लय का अलाप चलता रहता है, ठीक उसी प्रकार लय को दुगुन या चौगुन किये बिना ही, राग का स्वर विस्तार बराबर की लय में इस प्रकार चले कि ताल देने वालों को कठिनाई उत्पन्न हो जाये। आप चाहें तो इन मिजराबों को ठीक उन्हीं स्वरों पर भी बजा सकते हैं, जिन पर कि गति बंधी हुई है। इस प्रकार आप चाहें जो कुछ करें परन्तु यह ध्यान रखें कि आपके राग का स्वरूप और ताल गलत न हो जायें; जो भी बजे वह सुन्दर हो । आप चाहें तो इस तिरछी-बाड़ी बनाने के लिये कोई भी एक बोल लेकर इसी क्रिया को कर सकते हैं । यदि चाहें तो तिरछी-बाड़ी केवल दा या दिर के आधार से ही कर सकते हैं । यदि यह कठिन प्रतीत हो तो कुछ मिजराबों के बोलों के समूह को चार पांच या छः बार बजाकर, जो इच्छा हो जोड़ कर गति में मिल जाइये। उदाहरण नं० ११ उदाहरण के लिये हम एक बोल सात मात्रा का 'दा दिर दा रा दा दा रा' लेते हैं। यदि हम इसे राग में लगने वाले किन्हीं भी स्वरों पर चार बार बजा दें तो हमारी अट्ठाईस मात्राएँ पूरी हो जायेंगी । परन्तु चारों बार लगने चाहिये पृथक्-पृथक स्वर । इसे चार बार बजाने के बाद एक दूसरी मिजराब पांच बोल की 'दिड दा दिड़ दा रा' को भी भिन्न-भिन्न स्वरों पर चार बार ही बजा दें तो यह भी बीस मात्राएँ पूरी हो जायेंगी। इन अड़तालीस मात्राओं को बजाने के लिये यदि आप सम से उठते हैं. तो अन्त में पुनः सम में मिल जाइये। यदि आपकी इच्छा १२ वी से उठने की हो तो ४८ मात्राएं पूरी करके पुनः बारहवीं में ही मिल जाइये । इस प्रकार एक ही आड़ी-तिरछी को अलग-अलग स्थानों से उठकर, अलग-अलग स्थानों से गति में मिलने पर अलग अलग ही आनन्द आता है। अब आपको एक आड़ी-तिरछी का उदारहरण बताते हैं। इस स्थान पर गति के बोलों पर जो स्वर हैं उन्हें बदल रहे हैं । उदाहरण के लिये मसीतखानी गति राग पूरिया की ले रहे हैं । इस गति में आड़ी-तिरछी नं० ८ को करेंगे । चूंकि आड़ी-तिरछी की छठी से ग्यारहवीं मात्रा तक के मिजराब के बोल ठीक वही हैं जो कि गति की बारहवों से सम तक बजने वाली मिजराबों के, अतः हम १६-१-२-३-४-५ और ६-७-६-६-१०-११ मात्रा पर वही स्वर बजायेंगे जो मूल गति में १२-१३-१४-१५-१६ और १ मात्रा पर हैं। अब इसकी आड़ी-तिरछी को पूरा करने के लिये हमारे पास सम के बाद में मात्राएँ और बचीं। उनके हमने दो खंड कर दिये । पहिला वाला चार-मात्रा का और दूसरा तीन मात्रा का । हम जो भी चार और तीन स्वर इनमें रखना चाहें, राग को सात