पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/१६

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प्रथम अध्याय सितार और उसके रहस्य सितार का इतिहास- सितार के निर्माण का श्रेय आजकल अमीर खुसरो को दिया जाता है । सङ्गीत की सभी पाठ्य पुस्तकों में अमीर खुसरो सितार, तबला तथा अन्य न जाने कितने वाद्यों के आविष्कार का भगवान माना जाता है। बड़ी मनोरन्जक बात तो यह है कि स्वयं अमीर- खुसरो अथवा उसके किसी सम सामयिक इतिहासकार ने इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की है । हाँ, सङ्गीत की कुछ नवीन शैलियों अथवा नई धुनों और तालों को प्रचारमें लाने का प्रमाण अवश्य मिलता है। आइने अकबरी में भी अबुलफजल ने इस प्रकार के किसी वाद्य अथवा वादक की चर्चा नही की है। इतिहास पर दृष्टि डालने से हम देखते हैं कि गुप्तकाल तक अनेक वीणाओं का अच्छा प्रचार रहा है। समय-समय पर वीणाओं में परिवर्तन भी किये गये हैं। लगभग ६० प्रकार की वीणाओं के नाम आज भी ग्रन्थों में मिलते हैं। इन्हीं में तीन तारों वाली त्रितंत्री और सौ तारों वाली शततंत्री वीणाओं का उल्लेख भी है। सम्भव है किसी मुसलमान कलाकार ने 'त्रितंत्री' का फारसी नाम सहतंतरि' या 'सहतार' रख दिया हो और सात तार हो जाने पर वह 'सतार' या सितारी' के नाम से पुकारी जाने लगी हो। कुछ भी सही, वर्तमान सितार भारतीय वीणा का रूपान्तर है, चाहे इसका आविष्कारक कोई हिन्दू हो या मुसलमान। हारमोनियम में कोई व्यक्ति श्रुतियों को प्रगट करने के लिए कुछ भी उलट फेर करदे, फिर भी हारमोनियम भारतीय आविष्कार नहीं कहला सकता। सितार को उत्तर भारत में सरस्वती वीणा भी कहते हैं, जो कि उपयुक्त है; किन्तु 'सितार' एक सरल और प्रचलित शब्द होने से शीघ्र ही बदला नहीं जा सकता, अतः उसको भारत का श्रेष्ठतम शास्त्रीय वाद्य कहकर हम आगे बढ़ते हैं। सितार के जन्म से पूर्व, तन्त्री वाद्यों में वोणा और गायन में ध्रुपद शैली ही प्रधान थी। अतः उस काल के सङ्गीतज्ञ वीणा में भी ध्रुपद अंग को ही प्रधान रखा करते थे। परन्तु सितार के साथ-साथ ही ख्याल और कौल-कल्बाना ( कव्वाली) का भी जन्म हो चुका था। अतः ध्रुपद (ध्रुव-पद) के साथ-साथ सङ्गीतज्ञों में द्रुतलय की तानों एवं विभिन्न लयकारियों के प्रति भी रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। साथ-साथ वीणा में 'दिड' बोल न होने के कारण द्रुत के काम में विशेष आनन्द नहीं आ पाता था । जब कि सितार में वीणा का समस्त गांभीर्य्य रखते हुए, 'दिर' बोल के कारण द्रुतलय का भी यथेष्ट आनन्द आ जाता था। अतः इसी काल से सङ्गीतज्ञों ने वीणा को छोड़ कर सितार अपनाना प्रारम्भ किया और इसे इतना सम्पूर्ण बना दिया कि वीणाकार और ध्रुपदिये, जिस कार्य को प्रधान समझते हैं, उसे न छोड़ते हुए, ख्याल गायकी और तराने तक का अंग स्पष्ट कर