पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/१६८

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सत्रहवां अध्याय ध गं रें नि ध ने गं मं!रें सां ध प ग रे रे सा रे ग म ध! गं रें नि ध म नि ध प ग ध म म ग रे रे सा ध मं गं रें सां नि ध नि सां ध प म म ग रे रे सा मं गं मं गं रें गं रें सां नि ध ध प ग रे रे सा रे ग ध नि | मं गं मं सां! नि सां ध नि | प नि ५ प ग रे रे सा रे ग म ध नि | मं गं मं सां नि सां नि ध ध प म म ग रे रे सा इस प्रकार चाहे जितनी तानें बनाई जा सकती हैं । बारह स्वरों का अभ्यास तभी करना चाहिये जब मींड द्वारा स्वर शुद्ध निकलने लगें। मूर्च्छनाओं द्वारा रागों में सुन्दरता उत्पन्न करना- किसी भी राग में यदि पड्ज के अतिरिक्त अन्य किसी स्वर को षड्ज मानकर, उसी राग के स्वरों पर उसी राग को बजाते रहें तो यह क्रिया, जिस अन्य स्वर को षड्ज मान कर बजाया था, उसकी मूर्छना कहायेगी । उदाहरण के लिये, मानलें कि आप यमन बजा रहे हैं । आपने बजाते-बजाते मन्द्र नि को षड्ज मान लिया और उसी स्वर से यमन बजाते रहे । इस प्रकार आपका सप्तक नि सा रे ग म प ध नि और नि ध प म ग रे सा नि बन गया । आप देखेंगे कि यही स्वर भैरवी के हैं। अतः यमन राग में जब आप निषाद की मूर्च्छना दिखायेंगे तो सुनने वालों को उन्हीं स्वरों पर भैरवी का भ्रम उत्पन्न हो जायेगा। इसी प्रकार जब आप धैवत को षड्ज मान कर यमन के स्वर ध नि सा रे ग म पध और ध, प म ग रे सा नि ध बजायेंगे तो सुनने वालों को यमन के स्वरों पर काफ़ी राग का भ्रम हो जायगा । इसी प्रकार जब मन्द्र पञ्चम को षड्ज मान लेंगे तो यही भ्रम शुद्ध बिलावल अथवा शुद्ध स्वरों के किसी भी राग का हो सकता है। इसी क्रिया को क्रम से यमन राग में निषाद, धैवत और पञ्चम की मूर्च्छनाएँ कहेंगे; इन मूर्च्छनाओं द्वारा अलाप और तानों में विचित्रता एवं सुन्दरता उत्पन्न हो जाती