पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/२१२

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इक्कीसवां अध्याय १८१ जाता है। परेऽ सा की संगति आवश्यक है। जब यही परे ऽ की संगति छायानट में आती है तो ऋषभ के बाद षड्ज पर न आकर गान्धार की ओर जाते हैं। जब यही परेकी संगति जैजैवन्ती में होती है तो वहां पञ्चम को मन्द्र सप्तक का और ऋषभ को मध्य सप्तक का होना आवश्यक है। कामोद में रेप की संगति होती है न कि परे की। अतः गौड़सारंग में परे की संगति तब लेते हैं जब कि अलाप की समाप्ति करके षड्ज पर लौटना हो। हां, इसी प्रकार प रे ऽ सा को शुद्ध कल्याण में लिया जाता है। परन्तु शुद्ध कल्याण में कोमल मध्यम न होने से वह इससे बिल्कुल पृथक रहता है। वादी गांधार तथा सम्वादी धैवत है। आरोही-सा ग रे म ग प म ध प नि ध सां और अवरोही सां ध नि प ध म प ग म रे, प, रे 5 सा है। मुख्यांग-सा, ग रे म ग, परे 5 सा और गायन समय दिन का तृतीय प्रहर है । इसी आधार पर अलाप निम्न प्रकार हैं:- सा, रे सा. ग रे म ग, प में ध प म ग, प ध म प म ग, ध म प ध म प म ग रे म ग, म प प ध म प रे ग रे म ग, सा रे नि मा ग रे म ग, सा रे नि सा प ध म प सा रे सा सा ग रे म ग, ग रे म ग प म ध प म प म ग रे म ग, प रे 5 सा। सा रे ग रे म रे सा सा, ग रे म ग प रे सा सा, ग रे म ग प म ध प म ग प रे सा सा, ग रे म ग प म ध प म प सां रेंनि सां ध प म प, प ध म प, सांध में प. ध प म ग प सा, ग रे म ग प म ध प म प सां रे नि सां गंरें मं गं, ग रे म ग, सा म ग प म ध म प मग म गरे ग म ग प रे सा सा। म ग प म ध प म प सां, ध प म, ध प म ध प म प सां, ग रे म ग प म ध प म प सां, रेंसां नि सां ध प म प सां. गं रें मंगं पं रेंऽ सां, ग रे म ग प रे ऽ सा, ध प म प, ग रे म गऽ, नि ध म प, सां रे नि सां ध प म प ग रे म ग प रेऽ सा । ताने-१-नि सा ग रे म ग प रे नि सा, नि सा ग रे म ग प म ध ध म प म ग प रे नि सा, नि सा गरे म ग प म ध ध म प सां सां ध प म प म ग प रे नि सा, नि मा ग रे म ग प म ध ध म प नि ध सां सां रेंरें नि सां ध प म प गरे मग प रे नि सा । प रे सा २-ग रे नि सा, म ग प प रे सा नि सा, प ध म प म ग प प रे सा नि सा, धनि प ध म प म ग रे ग म ग प रे नि सा, सां रें नि सा प ध म प, रे ग म ग प रे नि मा, ग रे म ग प म ध प नि ध सां नि रेंरें सां नि सां ध प म प रे ग म ग प रे नि सा। ३-सा रे नि सा, ग म रे ग, प ध म प, सां रे नि सां, गं मं रें सां, रेंरें सां सां ध प में प, नि सां ध नि प ध म प, गरे म ग प रे नि मा । १४-चम्पाकली- इम राग में निषाद कोमल तथा शेष स्वर तीव्र लगते हैं। आरोही में ऋषभ, धैवत वर्जित स्वर हैं, अवरोही सम्पूर्ण है। अतः जाति औडव सम्पूर्ण है। संक्षेप में