पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/२५०

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इक्कीसवां अध्याय नि सां नि ध, ध नि सां नि ध नि ध म म ध नि ध म ध म ग, ग म ध म ग म ग रे, सा रे नि सा ध नि सा ग 5 म । ५८–रामकली यह भैरव अङ्ग का राग है। इसमें ऋषभ-धैवत कोमल, दोनों मध्यम, दोनों निषाद एवं शेष स्वर शुद्ध लगते हैं। ऋषभ, धैवत पर अधिक आन्दोलन करने से भैरव की छाया स्पष्ट आ जाती है अतः ऐसा कम करना चाहिये । इसमें तीव्र मध्यम एवं कोमल निषाद लगाने का एक विशेष ढङ्ग है। जैसे--म प ध नि ध प ग म और यह भी केवल अवरोही में ही। संक्षेप में यूँ समझिये कि यदि भैरव को उत्तरांग अर्थात् मध्य और तार सप्तक में गायें और अवरोह में कभी-कभी ऊपर लिये गये स्वर विस्तार को ले लें तो रामकली की रचना होती है। जाति संपूर्ण-संपूर्ण है। वादी पञ्चम तथा संवादी षड्ज है। गायन समय प्रातःकाल है। आरोहः-सा रे ग म प ध नि सां अवरोह:--सां नि ध प, म प ध नि ध प, ग म रे सा। मुख्यांगः--में प धु नि ध प, ग म रे सा । अलाप- सा, नि रे सा रे ग म प, प म प, म प ध ध प, ग म मरे ग म प, ध नि ध प, ध म प ग म, ध प, म प ध नि ध प म ग, म प म रे, रे सा नि रे सा । सा नि ध प, पध नि रे सा, रे ग म, ग म, म प म, म प ध ध प म, सा रे म प ध प म प ग म, रेग म प, ध नि सां नि ध प, म प ध प म, म प ध नि ध प म, सां नि ध प, म प ध नि धु म प ग म, रे नि सा। ग म प ध नि सां, ध नि सां रे सां, नि सा रे गं मं गं रे सां, रें सां, नि ध प, म प ध नि ध प म, ध प म, प ग रे ग म प, ध नि ध प म, प ग म, रे ग म, प, म प ध प म, प ग म रे सा। तानें-- १-सा रे ग म ग रे नि सा, सा रे ग म प म ग म ग रे नि सा, सा रे ग म प ध प म ग म ग रे नि सा, सा रे ग म प ध नि ध प म ग म ग रे नि सा, सा रे ग म प ध नि सां नि ध प प म प ध नि ध प म ग रे सा नि सा, सा रे ग म प ध नि सां रे सा रे सां नि ध प प म प ध नि ध प में प ग म ग रे नि सा। २-- म ग रे सा सा, प प ग म ग रे सा सा, ध ध प प म प ध प म म ग म ग रे सा सा, नि नि ध प म प ध नि ध प म ग म म ग म ग रे सा सा, सां रे नि सां नि नि ध प म प ध नि धु प म ग म म ग रे सा सा ।