पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/६

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प्रस्तावना भारतीय वाद्यों के क्षेत्र में मितार अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हमारे यहाँ गायन और वादन का समान रूप से सम्मान किया जाता रहा है । मानव की अंतरंग भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये भारतीय आचार्यों ने प्रत्येक कला पर अति सूक्ष्म विचार किया है। यही कारण है कि भारतीय सङ्गीत के पहलू पर विचार करते समय उसको सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति पर हमारे प्राचीन प्राचार्यों ने ध्यान देकर शिष्य वर्ग के लिये, सुगम करने के हेतु सूत्र अथवा आख्यायिकाओं को संस्कृत भाषा के माध्यम से लोक के सम्मुख रखा। समय-समय पर उन सूत्र रूपी वाक्यों का निष्कर्ष सङ्गीत के अनेक परिडतों द्वारा प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता रहा। यावनिक काल के प्रभाव ने हमें हमारे प्राचीन संगीत सिद्धान्तों से सर्वथा विलग कर दिया । अनेक भारतीय वाद्यों तथा रागों को यावनिक नाम देकर हमारे सामने इस रूप में प्रगट किया कि तत्व के स्थान पर संगीत का वाह्य ढांचा मात्र हमारे सामने रह गया । सिद्धांतों की जो सुदृढ़ नींव सङ्गीत के क्षेत्र में हमारे सामने नये क्षतिज खोलती थी, उसके मार्ग में अज्ञता का पर्दा पड़ गया। अन्ततः सङ्गीत जिज्ञासु को अशिक्षित गुरुओं की शरण लेनी पड़ी और तपस्या की लम्बी वीरान रातों में फूल के बजाय शूल उनके हाथ लगे। भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न तन्त्री वाद्यों के प्रयोग की चर्चा शास्त्रों में मिलती है । रस पारिपाक की दृष्टि से यथास्थान उनका प्रयोग किया जाता था। वैयक्तिक साधन की स्वतंत्र विशेषताएं उसका मुख्य अङ्ग होती थीं। शाश्वत नियमों में बंधकर भी कलाकार के निजी व्यक्तित्व को बाँधने वाली सीमा भारतीय सङ्गीत में कभी नहीं रही । फलस्वरूप गायन और वादन के क्षेत्र में विभिन्न घरानों का प्रादुर्भाव हुआ । प्रत्येक घराने की निजी सुगंध रही, जिसे शिक्षित विद्यार्थी ने रूढ़िवादी विचारों को त्याग कर अपने मङ्गीत में आत्मसात् किया। वीणाओं के लुप्त होने पर कुछ काल तक भारत में रबाब, कानून तथा अन्य समकक्ष वाद्यों का प्रचार रहा। सितार को अस्तित्व में लाने का श्रेय किसी को दिया जाय, किन्तु भारतीय वीणा ही उसकी जननी है, इसमें सन्देह की आवश्यकता नहीं । जोड़, अलाप, गमक, मीड़, क्रन्तन, झाला आदि अङ्ग प्राचीन वीनकारों को सिद्ध होते थे, उनकी साधना आज की साधना से भिन्न होती थी। कुछ दशाब्दी पूर्व के उस्ताद लोग जीवन भर वीणा या सितार के एक ही अङ्ग की साधना पर अधिक बल देते थे, अर्थान् किन्हीं खाँ माहब का नाम जोड़ बजाने में था तो किन्हीं का गमक या झाले में । किन्तु आज की परिस्थितियाँ वैज्ञानिक युग तथा चपल श्रोता के कारण भिन्न हैं। वह प्रत्येक कलाकार से सितार के पूरे अङ्गों को निपुणता के चरमोत्कर्ष पर सुनना चाहता है। अभाग्यवश वादक का कोई अङ्ग कमजोर रहा तो उमी -- - - - - - - - -