पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सातवाँ अध्याय का अंत षड्ज पर करते रहने से वह स्वर खूब चमकता रहेगा । जैसे:-प, धप, मप, नि, निसां, धनिसां, धपमपनिनिप्तां, पधर्मपनिनिसां, सांनिधप, मधपमंगरेगमपधनिसां, धनिसां- धनिसांधनिसांनिधपमंगरेगमपधनिसां, धनि, पध, मपधनिधपमैप, धनिनिधनिनिधनिधप, पधर्मपनिनिसां, धनिसां, पधनि, मपध, गर्मप, रेगम, सारेग, निसारे, धनिसारेगमपधनि- सांनिधपमंगरेनिरेसा । अब आप इन्हीं स्वरसमुदायों में चाहे जितने अलंकार बना डालिये। साथ में आगे के ऋषभ, गान्धार, मध्यम व पञ्चम तक को जोड़ सकते हैं। बस यही ध्यान रखिये कि जो भी स्वर रचना की जाये, उसमें यमन कल्याण के ही सारे स्वर होने चाहिये । वादी स्वर भी चमकता रहे और कभी कभी पकड़ के भी स्वर आते रहने चाहिये । सबसे महत्व की बात नवीन कल्पना करना नहीं भूलना चाहिये। इन्हीं मेलों के आधार से, पिछले अध्याय में दिये हुए ढंग से अलाप कर सकते हैं। कुछ विद्वान इस राग में विवादी के नाते शुद्ध मध्यम का अल्प प्रयोग भी कर देते हैं। इसे करने के लिये अलाप के अंत में केवल अवरोही में 'पमंगरेगमगरे, निरेसा को भांति कभी कभी कर देते हैं । विवादी स्वर का स्पष्टीकरण :-- विवादी स्वर के विषय में शास्त्रों में केवल यही कहा गया है कि यह स्वर राग का शत्रु होता है। परन्तु सुन्दरता के लिये इसका प्रयोग किया जा सकता है। अब यदि एक सङ्गीतज्ञ से पूछा जाये कि कल्याण राग में कौन कौन विवादी स्वर हैं ? तो वह केवल एक स्वर शुद्ध मध्यम को ही बतलायेगा, जबकि उसमें कोमल रे, गा, धा, नि और शुद्ध मध्यम ये पांच स्वर विवादी हैं । अर्थात सुन्दरता के लिये कल्याण में किसी भी स्वर का प्रयोग विवादी के नाते किया जा सकता है । इसे और अधिक स्पष्ट समझने के लिये किसी औडव-औडव जाति के राग को ले लीजिये । मानलो हम सारङ्ग (जिसे वृन्दावनी सारङ्ग भी कहते हैं ) को ही लेते हैं । इसमें केवल पांच स्वर 'सा रे मा पा नि' प्रयोग में आते हैं। 'नि' स्वर के दोनों रूप शुद्ध और विकृत भी प्रयोग किये जाते हैं। 'गा' और 'धा' वर्जित हैं ही । अब यदि हम इस राग में 'गा' या 'धा' का प्रयोग कर दें तो राग में पांच के स्थान पर छः या सात स्वर लगने लगेंगे । फलस्वरूप राग की जाति औडव-औडव न रह कर षाडव पाडव अथवा संपूर्ण संपूर्ण हो जायगी। अतः यह राग सारंग न रह कर दूसरी जाति का कोई अन्य राग बन जायेगा। परन्तु इसके विपरीत यदि हम इसमें कोमल ऋषभ अथवा तीव्र मध्यम का प्रयोग करदें तो, चूंकि ऋषभ और मध्यम तो राग में लग ही रहे हैं अतः राग की जाति में तो कोई अंतर आयेगा नहीं, वरन् इन स्वरों के लगते ही राग में एक दम गड़बड़ी उत्पन्न हो जायेगी। इसलिये यदि हम इन स्वरों को शत्रु की उपमा दे दें तो उचित ही होगा। अब एक कुशल सङ्गीतज्ञ इन्हीं विवादी (शत्रु-तुल्य ) स्वरों का इस प्रकार प्रयोग करे कि राग-हानि के स्थान पर उसकी सुन्दरता बढ़ जाये, तो इन स्वरों