पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/८६

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दसवाँ अध्याय तीन ताल की सैनवंशीय गतें बनाना सैनवंशीय गत्रों की विशेषताएँ बतलाते समय यह लिख दिया गया है कि यह गते प्रायः दो आवृत्तियों में बंधी होती हैं। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं समझना चाहिये कि यह गते दो श्रावृत्तियों में ही होनी चाहिये । अस्तु, इन्हें दो आवृत्तियों में करने के लिये आपकी अब तक की सीखी हुई मसीत खानी गति को ही संपूर्ण सोलह मात्रा तक ज्यों का त्यों बजा कर, आगे की सोलह मात्राओं में बोलों को कुछ बदल दिया जाता है। इनको एक आवृत्ति में करने के लिये स्व० मसीत खां साहब ने इन गतों में से केवल पहिली सोलह मात्राएँ लेकर गते बनाई हैं, ऐसा मेरा मत है। हां, तो इस प्रकार की दो आवृत्तियों की गतों के बोल यह हैं:- दिड दा दिड दा डा दा (दा डा दिड़) दा दिड दा ड़ा दा दा ड़ा दिड दा दिड दा डा दा (दिड दा डा) दा दिड दा डा दा दा डा यहां पर केवल कोष्ठ के तीन बोलों में ही तनिक सा अंतर है । ऊपर के बोलों में दिड़ वाली मिजराब को दाड़ा से पहिले रख दिया है, जबकि पहिलो प्रावृत्ति में वह दाड़ा के बाद में थी। अब एक-दो उदाहरण इस प्रकार की गतों के बनाकर दिखाये जाते हैं:- राग श्री--(ऋषभ स्वर वादी) निनि प ध प म ३ २ सां सां सां निनि ! मां रे सां नि दा दिड दा डा | डा दा डा दिड दा दिड दा डा दा दा डा प मम ग रे रे पप म रे सा दा दिड दा डा दा दिड दा डा दा दिड दा डा दा दा डा प प ग धुध दिड़ । X o जिस प्रकार स्व० मसीत खां साहब ने अपनी गते बनाने में इन बोलों में से केवल पहिले सोलह बोल चुन लिये हैं, उसी प्रकार यदि आप भी चाहें तो अपनी गतों को केवल नीचे के ही सोलह बोलों पर तैयार कर सकते हैं। देखिये, अब हम इसी राग श्री का अन्तरा दो श्रावृत्तियों में ही केवल नीचे के बोलों के आधार से बनाते हैं:-