पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१०

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भामह :-अलङ्कार को प्रधानता देने वालों में पहले प्राचार्य भामह का नाम पाता है। उनसे पूर्व बहुत से प्राचार्य रहे होंगे क्योंकि स्वयं भामह ने रामशर्मा (काव्यालङ्कार, २।१६), मेधावी (२।४०) आदि का उल्लेख किया है किन्तु उनका या तो कोई बड़ा ग्रन्थ न रहा होगा और यदि रहा होगा तो विनष्ट हो गया होगा। प्रब वे नाममात्रावशेष हैं। भामह (पाँचत्री या छटी शताब्दी)पहले प्राचार्य हैं जिन्होंने विधिवत् 'साहित्यशास्त्र' की रचना की । अलङ्कारों को प्रधानता देते हुए---'न कान्त- मपि निभूपं विभाति कान्तासुखम्' (काव्यालङ्कार' १११३)-भामह ने ३८ अलङ्कार माने हैं । भट्टिकाव्य (पाँचवी शताब्दी) के दशम सर्ग (प्रसन्नकाण्ड) में भी इतने ही अलङ्कार माने गये हैं और उन सब में वक्रोक्ति को प्रधानता दी है—'कोऽ तारोऽनयाविना (काव्यालङ्कार' २।८५) । उसका (वक्रोक्ति का) रूप भी उन्होंने विस्तृत कर दिया है जिससे कि सब अलङ्कार और काव्य का सारा सौन्दर्य उसके मूत्र में बँध जाय । वक्रोक्ति को भामह ने शब्द और अर्थ की विभिन्नता कहा है-'वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलंकृतिः' (काव्याल. कार, १।३६) ! काव्यालङ्कार में रीति, गुण, दोष, वक्रोक्ति और रसवत् अल- ङ्कार (काव्यालङ्कार, ३।६) के प्राश्रय रस का विवेचन हुना है । भामह ने महा- काव्यों में भी अन्य बातों के साथ रस का होना आवश्यक माना है.---'युक्तं- लोकस्वभावेन रमैश्च सकलैः पृथक्' (काव्यालङ्कार १।२१)। यह सब बात होते हुए भी भामह की दृष्टि काव्य के शरीर पर ही अधिक रही है । यद्यपि भामह ने काव्य के लिए पूर्ण निर्दोषता--'विलचमणा हि काव्येन दुस्सुतेनेव निन्यते' (काव्यालङ्कार, २१११) अर्थात् एक पद भी ऐसा नहीं होना चाहिए जो कहने के अयोग्य हो, श्रीहीन काव्य से ऐसी ही निन्दा होती है जैसे कुपुत्र से--और साल- कारता -'न कान्तमपि निभूई विभाति वनिता मुखम्' (काव्यालङ्कार, १॥ १३)--को आवश्यक गुण माना है तथापि उनके काव्य की परिभाषा में केवल 'शब्दार्थों' ही दिया गया है-'शब्दार्थों सहिती काव्यम्' (काव्यालझार, १।१६) -~-इसीलिए भागह ने छटा परिच्छेद शब्द की व्याख्या में लगाया है । भामह ने अपनी पुस्तक (काव्यालङ्कार) के नामकरण में अलङ्कारों की प्रधानता रखी है। दण्डी :--अलङ्कार-सम्प्रदाय के दूसरे प्राचार्य है' 'काव्यादर्श' के लेखक दण्डी (ये भी भामह के समान पाँचवी या छटी शताब्दी के थे)। दण्डी ने अपने ग्रन्थ का 'काव्यादर्श' नाम रखकर भामह की अपेक्षा छ अधिक उदारता दिलाई। उसने अलङ्कारों को काव्या-शोभा के उत्पादक मानते हुए भी-'काव्यशोभाकरान्धर्मानलकारान्प्रचक्षते (काव्यादर्श,१२)गुणों को