पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/११४

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सिद्धान्त और अध्ययन हंसवाहिनी माता शारदा का ध्यान 'वीणपुस्तकधारिणी' के रूप में होता है। हंस नीर-क्षीर-विवेकी होने के कारण सत्य का प्रतीक है पीर वीणा 'सुन्दरम्' का प्रतिनिधित्व करती है, पुस्तक सत्य और हित दोनों को साधिका कही जा सकती है। 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का सम्बन्ध क्रमश शान (IKnowent), भावना ( Feeling ) और सङ्कल्प ( Willing ) नाम की गनोवृत्तियों तथा । ज्ञान-मार्ग, भक्ति-मार्ग और कर्म-गार्ग से है ।। विज्ञान, धर्म और 'सत्यं शिवं सुन्दरम् विज्ञान, धर्म और काव्य से काव्य पारस्परिक सम्बन्ध का परिचायक सूत्र भी है। विज्ञान का ध्येय है- सत्य केवल सत्य, निरावरण सत्य । शिवं उसके लिए गौण है, विज्ञान ने पेन्सिलीन को भी रचना की है पीर परमाणु बम्ब को भी बनाया है । सुन्दरम् तो उसके लिए उपेक्षा की वस्तु है । वह मनुष्य को भी प्रकृति के धरातल पर घसीट लाता है और गुण को भी परिमाण के ही रूप में देखता है। उसके लिए वीभत्स कोई अर्थ नहीं रखता। धार्मिक सत्यं में शिवं की प्रतिष्ठा करता है। वह लक्ष्मी का माङ्गलिक घटों से अभिषेक करता है क्योंकि जल जीवन है, वह कृषि-प्राण भारत का प्राण है और माङ्गल्य का प्रतीक है। जिस प्रकार सरस्वती में सत्यं और सुन्दरम का समन्वय है उसी प्रकार लक्ष्मी में शिव और सुन्दरम का सम्मिश्रण है। वेदों में 'तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु ( यजुर्वेदः) का पाठ पढ़ाया जाता है और शिव कल्याण या हित के नाते ही महादेव के नाम से अभिहित होते है । धार्मिक शिव के ही रूप में सत्य के दर्शन करता है। साहित्यिक सत्य और शिव की युगल मूर्ति को सौन्दर्य का स्वर्णावरण पहनाकर ही उनकी उपासना करता है । 'तुलसी मस्तक तब नन्नै धनुष वाण लेहु हाथ-साहित्यिक के हृदय में रसात्मक वाक्य का ही मान है। ___ साहित्यिक की दृष्टि में सत्यं शिवं सुन्दरम में एका-एक भाव को यथावाम उत्तरोत्तर महत्ता मिलती है। वह सच्चिदानन्द भगवान् के गुणों में अन्तिम गुण को चरम महत्त्व प्रदान करता है। 'रसो के सा' समन्वय सत्यनारायण भगवान् की वह रस-रूप में ही उपासना करता है । सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की भिमूत्ति में एक ही सत्य-रूप की प्रतिष्ठा है । सत्य कर्तव्य-पथ में आकर शिवं बन जाता है और भावना से समन्वित हो सन्दरम् के रूप में दर्शन देता है। रान्दर सत्य ।