पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/११६

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सिद्धान्त और अध्ययन ७८ स्तल में प्रवेशकर वह उसे भीतर से देखता है । कवि भाव-जगत का प्राणी है, वह घटना के सत्य की उपेक्षाकर भावना के ही सत्य को प्रधानता देता है। वह प्रकृति की मक्खीमार अनुकृति नहीं चाहता। वह यान्त्रिक अर्थात् फोटोग्राफी के सत्य का पक्षपाती नहीं। न वह ऐतिहासिक है, न वैज्ञानिकः । ये दोनों ही घटना के सत्य का आदर करते हैं। ये प्रत्यक्ष और ज्यादह-रो-ज्यादह अनुमान को ही प्रमाण मानते हैं। कवि रवि की पहुँच से भी बाहर हृदय के अन्तस्तल में प्रवेश कर आन्तरिक सत्य का उद्घाटन करता है । कवि शाब्दिक सत्य के लिए विशेष रूप से उत्सुक नहीं रहता, घटना के सत्य को वह अप- नाना अवश्य चाहता है किन्तु उसे वह सुन्दरम् के शासन में रखना अपना कर्त्तव्य समझता है । लक्ष्मणजी के शक्ति लगने पर गोस्वामीजी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी से कहलाते हैं :- 'निज जननी के एक कुमारा' 'मिलहिं न जगत् सहोदर भ्राता' 'पिता वचन मनतेउँ नहिं श्रोह' -रामचरितमानस (लक्षाकाण्ड') ___ इनमें से कोई भी वाक्य इतिहास की कसौटी पर कराने से ठीक नहीं उतरता, किन्तु काव्य में इनका वास्तविक सत्य से भी अधिक महत्व है। कभी- कभी झूठ में ही सत्य की अधिक-से-अधिक अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है। श्रीरामजी के लिए लक्ष्मणजी का 'निज जननी के एक कुमारा' से अधिक महत्त्व था क्योंकि वे त्यागी, तपस्वी और कर्तव्यपरायण थे । उन पर राम का स्नेह सहोदर भ्राता से भी बढ़ा-चढ़ा था और वे उनके लिए श्रादर्शो का भी बलिदान करने को प्रस्तुत थे। यह स्नेह की पराकाष्ठा थी। .. फिर कवि के लिए सत्य का क्या अर्थ है ? कवि एक ओर एक-दो के सत्य में विश्वास नहीं करता। उसकी दृष्टि में एक और एक, एक ही रह सकते हैं और तीन भी हो सकते हैं । सत्य को क्षुद्र, निश्चित और प्रगतिशील सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है, न वह फोटो केमरा के निष्क्रिय सत्य का उपासक है। वह मानव-हृदय के जीते-जागते सत्य का पुजारी है । उसके लिए विचारों की प्रान्तरिक और बाह्य सङ्गति ही सत्य है । वह जनसाधारण के अनुभव की अनुकूलता एवं हृदय और विचार के साम्य को ही सत्य कहेगा। वह हृदय की सचाई को महत्त्व देगा । वह अपने हृदय को धोखा नहीं देता। उराकी भावना के सत्य और सौन्दर्य में सहज सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । साहित्यिक सत्य की नितान्त अवहेलना नहीं कर सकता है। कवि सम्भा-