पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/११८

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सिद्धान्त और अध्ययन ६० करे तो वह अपने क्षेत्र से बाहर नहीं जाता है । इस बात का उसे ध्यान रखना पड़ता है कि उसका सत्य लोक में प्रतिष्ठित सत्य के साथ गेल खा सके । सत्य भी सामञ्जस्य का ही रूप है। वैज्ञानिक और साहित्य के सत्य में इतना अन्तर अवश्य है कि द्रष्टा की मानसिक दशा के कारण जो वास्तविकता में अन्तर दिखाई देता है उसे वैज्ञानिक स्वीकार नहीं करता है और यदि स्वीकार भी करता है तो प्रमत्त के प्रलाप के रूप में। भाव-प्रेरित होने के कारण साहित्यिक प्रमत्त प्रलाप का भी आदर करता है। साहित्यिक भूठ में भी सत्य के दर्शन करता है। विरह-व्यथित नायिका के भ्रम का भी उसके हृदय में मान है :- 'बिरह-जरी लखि जीगननु, कयौ न डहि के बार। अरी, श्राउ भजि भीतरी; बरसत श्राजु थगार ॥' -बिहारी-रत्नाकर (दोहा ५६६) शिव क्या है और अशिव क्या है ? इसके उत्तर देने में 'कवयोऽपि मोहिताः' फिर 'अस्मदादिकानां का गणना ? शिव के साथ ही मूल्य का भी प्रश्न लगा हुआ है । प्राजकल' गूल्य को इतना महत्त्व शिव का दिया जाता है कि व्यावहारिक उपयोगितावादी ( Pray- आदर्श matists ) सत्य की भी कसोटी उपयोगिता ही गानते हैं। इस सम्बन्ध में साहित्यिक संकुचित उपयोगितावादी नहीं है । वह रुपये-आना-पाई का विशेषकर अपने सम्बन्ध में लेखा-जोखा नहीं करता । वह अपने को भूल जाता है किन्तु 'हितं' के रूप में मतभेद है । कोई तो केवल आर्थिक और भौतक हित को ही प्रधानता देते हैं (जैसे प्रगतिवादी) और कोई उसकी उपेक्षा कर माध्यात्मिक हित को ही महत्त्व प्रदान करते हैं। वास्तव में पूर्णता में ही भानन्द है । 'भूमा वै सुखम्'--व्यक्ति की भी पूर्णता समाज में है, इसीलिए लोकहित का महत्त्व है । हितं वा शिवं वही है जो लोक ( यहाँ लोक का अर्थ परलोक के विरोध में नहीं है ) को बनावे और लोक को बनाने का अर्थ है व्यक्तियों की भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों में सामञ्जस्य स्थापित कर उनको सुसंगठित और सुसम्पन्न एकता की ओर ले जाय । भेद में अभेद, यही सत्य का आदर्श है और यही शिव का भी मापदण्ड है । भेद में अभेद की एकता ही सम्पन्न एकता है । विकास का भी यही श्रादर्श है—विशेषताओं की पूर्ण अभिव्यक्ति के साथ अधिक-से-अधिक सहयोग और संगठन । जो साहित्य हमको इस श्रादर्श की ओर अग्रसर करता है यह शिवं का ही विधायक है । इस हितं के आदर्श में सौन्दर्य को भी स्थान है । भारतीय