सत्यं शिवं सुन्दरम्-सौन्दर्य का मान संस्कृति में धर्म, अर्थ और काम तीनों को ही महत्त्व दिया गया है। तीनों का संतुलन तथा अविरोध वैयक्तिक और सामाजिक जीवन का आदर्श है, वहीं मोक्ष और आनन्द का विधायक होता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी ने तीनों के विरोध सेवन का ही उपदेश भ्रातृभक्तिपरायण भरत को दिया है :- 'कञ्चिदर्थेन वा धर्ममर्थ धर्मेण वा पुनः ।.. उभौ वा प्रीतिलोभेन कामेन न. विबाधसै ॥ .... कच्चिदर्थ च कामं च धर्म च जयतांवरः। विभज्य काले कालज्ञ सन्धिरद सेवसे ।।' बाल्मीकीय रामायण ( अयोध्याकाण्ड, १००१६२, ६३) अर्थात् क्या तुम अर्थ से धर्म में और धर्म से अर्थ में तथा प्रीति, लोभ और काम से धर्म और अर्थ में बाधा तो नहीं डालते ? और क्या तुम अपना समय बाँटकर धर्म, अर्थ और काम का सेवन करते हो ? . सुन्दर क्या है ? इसका भी उत्तर देना इतना कठिन है जितना कि शिवं और सत्यं का। कुछ लोग तो सौन्दर्य को विषयीगत ही मानते हैं :-- । 'समै समै सुदर सबै, रूपु कुरूपु न कोई। . .: . सौन्दर्य का मान मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होइ ।' . -बिहारी-रत्नाकर (दोहा ४३२) अँग्रेजी कनि कालरिज ने भी ऐसी ही बात कही है, रमणी हम तुझमें वही पाते हैं जो तुझे देते हैं-O lady ! we receive but what we give !' (Dejection: An Ode)। कुछ लोग सौन्दर्य को विषयगत बतलाते हैं और कुछ उसे उभ यगत कहते हैं-'रूप-रिझावनहारु वह, ऐ नैना रिझवार' (बिहारी-रत्ना- कर,दोहा ६८२)। रवि बाबू ने रमणी-सौन्दर्य को आधा सत्य और आधा स्वप्न कहा है । आजकल अधिकांश लोग सौन्दर्य को विषयगत मानते हुए भी व्यक्ति पर पड़े हुए उसके प्रभाव का ही अधिक विवेचन करते हैं, कवियों की वाणी में भी प्रायः प्रभावों का ही वर्णन होता है । चेतन लोग तो सौन्दर्य के प्रभाव में आ ही जाते हैं ( बिहारी की थुरहत्थी नायिका के लिए जगत भिखारी हो जाता है ) किन्तु यह प्रभाव जड़ जगत तक भी व्याप्त दिखाया जाता है। ____ यहाँ पर सौन्दर्य की कुछ परिभाषाओं से परिचय प्राप्त कर लेना वाञ्छ- नीय है। हमारे यहाँ सौन्दर्य या रमणीयता की जो परिभाषा अधिक प्रचलित है, वह इस प्रकार है :- . .'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैतितदेव रूपं रमणीयत्तायाः ।...
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