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दोनों ही जैन हैं) के अतिरिक्त जयदेवपीयूषवर्ष (१३वीं शताब्दी) का 'चन्द्रा-
लोक' तथा उसके पञ्चम मयूख पर अप्पयदीक्षित (१६वीं और १७वीं
शताव्दी) की 'कुवलयानन्द' नाम की टीका विशेष रूप से उल्लेखनीय
है (अप्पय दीक्षित तक पहुंचते-पहुँचते अलङ्कारों की संख्या १२० हो गई)।
जयदेव ने तो अलङ्कारों को प्रधानता न देनेवालों को खुली चुनौती दी थी कि
जो काव्य को अलङ्काररहित कहता है वह अाग को 'अनुपण' क्यों नहीं कहता
है । चन्द्रालोक में एक ही श्लोक में लक्षण और उदाहरण दोनों ही दिये गये
हैं। चन्द्रालोक का हिन्दीवालों पर विशेष प्रभाव पड़ा है।
भामह ने यद्यपि अलङ्कारों को प्रधानता दी तथापि उनके ग्रन्थ में बीज
तो रस, वक्रोक्ति और रीति-सम्प्रदाय के भी थे । दण्डी ने रीति की गुणों से
___ सम्बन्धित कर (दण्डी ने दशों गुणों को वैदर्भी के प्राण
रीति और कहा है-'इतिवैदर्भमार्गस्य प्राणा: दशगुणाः स्मृताः
वक्रोक्ति के (काव्यादर्श, १।४२)) उसे कुछ आगे बढ़ाया। वक्रोक्ति
- बीज को भामह ने विशेष प्रधानता दी है। उसने उसको
. व्यापक रूप देकर काव्य के लिए आवश्यक बतलाया
है--'युक्तं स्वभावोक्तया सर्वमेतदिज्यते' (काव्यालङ्कार, १:३०)---और यही
कुन्तल के 'वक्रोक्तिजीवित' की आधार-शिला बनी । दण्डी ने धनोवित को
स्वभावोक्ति के विरोध में रखकर एक प्रकार से अलङ्कारों के वर्गीकरण ...का
सूत्रपात किया है अर्थात् उसने अलङ्कार दो प्रकार के माने हैं--(१) स्वगा-
वोक्ति-प्रधान और (२) वकोक्ति-प्रधान । वास्तव में भामह का ही बिचार
कुन्तल के विचार का अंकुर बना. और दण्डी के सूत्र को लेकर वामन
आगे बढ़े।
.. वामन ( ८वीं शताब्दी ) ने इसी रीति के सूत्र को प्रधानता देकर
'रीतिरात्मा काव्यस्य' (काव्यालङ्कारसूत्र, १।२।६) की घोषणा कर दी। उसने
वैदर्भी-गौडीय के अतिरिक्त एक और रीति (पाञ्चाली)
रीति-सम्प्रदाय को माना । वामन की गौडीय रीति दण्डी की गौडीय रीति
की भाँति कोई हीन रीति नहीं है वरन् वह एक स्वतन्त्र-
रीति है जिसमें प्रोग का प्राधान्य रहता है-'योज: कान्तिमती गौडीया'
(काव्यालङ्कारसूत्र, ११२।१२)---और रौद्र, वीर आदि उग्न रसों के अधिक
अनुकूल होती है । दण्डी की भांति वामन ने वैदर्भी को सर्वगुणसम्पन्न रीति
माना है-'समग्रगुणा वैदी' (काव्यालङ्कारसूत्र, १।२।१२)-और माधुर्य
तथा सौकुमार्यगुणों से सम्पन्न रीति को पाञ्चाली कहा है-'माधुर्यसौकुमार्यो-
पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१२
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