८३ सत्यं शिवं सुन्दरम्-~-सौन्दर्य का मान नवीनता धारण करने की शक्ति रहती है । सुन्दर वस्तु में रमरणीयता प्रत्येक अवस्था में रहती है । उसको बाहरी अलङ्कारों की जरूरत नहीं होती-'सरसिज- मनुविद्धं शैवलेनापि रम्यम्'-रमणीयता में माधुर्य का भाव मिलाकर हमारी परिभाषा विषयगत और विषयीगत दोनों ही बन जाती है। माधुर्य को चित्त का द्रवणशील आह्लाद कहकर उसकी व्याख्या में हम सात्विकता की उस दशा के निकट आगये हैं जिसमें सौन्दर्य का अनुभव करने वाला, सुन्दर वस्तु के रसास्वाद में अपने को खो देता है । इसी बात को प्राचार्य शुक्लजी ने भी लिया है, वे लिखते हैं :-- ___ 'कुछ रूप-रङ्ग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर के लिए हमारी सत्ता पर ऐसा अधिकार कर लेती हैं कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में ही परिणत हो जाते हैं । हमारी अन्तस्सत्ता की यही तदाकार-परिणति सौन्दर्य की अनुभूति है ।......जिस वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से तदाकार-परिणति जितनी ही अधिक होगी उतनी ही वह वस्तु हमारे लिए सुन्दर कही जायगी।' --चिन्तामणि (भाग १, पृष्ठ २२४ तथा २२५) ___ यह व्याख्या प्रभाव-सम्बन्धी है किन्तु भारतीय सात्विकता को लेकर चली है । अंग्रेजी के लेखकों ने भी इस प्रकार की सात्विकता को अपनाया है, शैली ( Shelly ) का कथन सौन्दर्य के सम्बन्ध में इस प्रकार है :- "A going out of our own nature and an identification of ourselves with the beautiful which exists in thought, action or person, not our own.' ____-A Defence of Poetry. अर्थात् अपनी प्रकृति से बाहर जाना और अपने से बाहर रहने वाले विचार, कार्य या व्यक्ति में रहने वाले सौन्दर्य से अपना तादात्म्य करना है। यह तादात्म्य की बात साधारणीकरण से सम्बन्ध रखती है। सौन्दर्य पाठक और कवि के हृदय में तदाकारवृत्ति उत्पन्न करने में समर्थ होता है। सौन्दर्य की और भी परिभाषाएँ तथा व्याख्याएँ हैं। कुछ लोग तो सौन्दर्य को पूर्णता में मानते हैं । पूर्णता में 'क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति' की भावना आजाती है । कुछ लोग सामञ्जस्य, संतुलन और एकरसता को प्रधानता देते हैं । वस्तु का सामञ्जस्य हमारे मन में भी उसी सामञ्जस्य को उत्पन्न कर देता है। उससे हमारी विरोधी मनोवृत्तियों में और प्रवृत्तियों में साम्य उत्पन्न हो . जाता है।
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