पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१३

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पपन्ना पाञ्चाली'(काव्यालङ्कारसूत्र, १।२।१३)। गुणों के सम्बन्ध में भी वामन और दण्डी के दृष्टिकोण में थोड़ा भेद है । जहाँ दण्डी ने दश गुणों के भीतर ही शब्द और अर्थ के गुण माने हैं वहाँ वामन ने शब्द और अर्थ के अलग-अलग दश-दश गुण माने हैं। । वामन की देन :-वामन का (८वीं शताब्दी के अन्त में) आन्तरिकता की ओर दृढ़ प्रयास था। उसने गुणों को मुख्यता देते हए अलङ्कारों को गौण बतलाया । गुणों को काव्य की शोभा के उत्पन्न करने वाले और अलङ्कारों को शोभा बढ़ानेवाले धर्म कहा है :-- 'काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मागुणाः ।' . 'तदतिशयहेतवस्त्यलङ्काराः।' -काव्यालङ्कारसूत्र (३।१।१, २) ' प्रान्तरिकता को महत्ता देने के सम्बन्ध में वामन को दूसरा श्रेय इस बात बात का है कि उसने काव्य की परिभाषा में आत्मा को मुख्यता दी है- 'रीतिरात्मा काव्यस्य' (काव्यालङ्कार सूत्र, १।२।६)। उसी के बाद ध्वनिकार और प्राचार्य विश्वनाथ ने क्रमशः ध्वनि ('काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति' ध्वन्यालोक, १११) और रस को काव्य की आत्मा कहा किन्तु वामन ने भी रस को मुख्यता न दी वरन् उसको कान्ति गुण के ही अन्तर्गत रखा-~-'दीप्तिरसत्वं कान्ति;' (काव्यालङ्कारसूत्र, ३।२।१४)। वामन द्वारा अलङ्कारों को पिछड़ा देने पर भी अलङ्कार-सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप से चलता रहा । .. यद्यपि शब्द और अर्थ दोनों ही काव्य के शरीर माने गये हैं तथापिउनमें शब्द की अपेक्षा अर्थ की प्रधानता रही। अलङ्कारों में भी शब्दालङ्कारों को विशेष महत्त्व मिला । उपमा, श्लेष, व कोक्ति आदि अर्थालङ्कार ही ध्वनि-सम्प्रदाय अलङ्कारों के मूल में माने गये । अर्थ के विवेचन में निरुक्त, न्याय, मीमांसा, व्याकरण आदि ने भी योग दिया । शब्द- शक्तियों का भी अध्ययन हुआ, उनमें व्यञ्जना को प्रधानता मिली । प्रानन्द- वर्धन (नवीं शताब्दी के मध्य में ) के समय तक मुक्तककाव्यों ( जैसे 'अमरुक- शतक','पार्याशप्तशती' आदि) का चलन बढ़ चला था । प्रबन्धकाव्य में जितना अच्छा रस का परिपाक हो सकता है उतना मुक्तककाव्यों में नहीं। मुक्तककाव्यों में व्यञ्जना की प्रधानता के साथ अपनी एक.विशेष श्री होती है - 'मरुक कवेरेका श्लोकः प्रबन्धशतायते' अर्थात् प्रमरुक का एक-एक श्लोक सौ-सौ प्रबन्ध- काव्यों के बराबर माना गया है---(प्रानन्दवर्धन ने भी 'अमरुक' का उल्लेख किया है ) । ऐसी काव्यरचनानों के साथ ध्वनि का भी विवेचन आवश्यक था ।