१०० सिद्धान्त और अध्ययन (डाह-विशेषकर सपत्नी से) आदि गौण मनोवेग हैं और वे स्थायी भावों को पुष्ट करते हैं । इनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता। ये दूसरे भावों के सहायक होकर ही जीवित रहते हैं। हमारे यहाँ समीक्षा-क्षेत्र में स्थायी भावों और उनके सञ्चारी भावों का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है । ये सञ्चारी भाव स्थायी भावों की रूप-रेखा निश्चित कर उनमें रङ्ग भरते हैं और उन्हें भी सफलता प्रदान करते हैं। स्थायीभाव तो अधिकतर अनुमित ही रहता है । वह अपने सञ्चारियों से ही पहचाना जाता है । अनुभाव भी स्थायी भाव का अस्तित्व निश्चित कराते हैं । ये सभी भाव रस की अभिव्यक्ति में उसके कारणरूप से स्थान पाते हैं ! एक रस के स्थायी भाव जब किसी दूसरे रस के अङ्ग बनकर पाते हैं सञ्चारी कहे जाते हैं, जैसे शृङ्गार के साथ हास्य, वीर के उत्साह के साथ भयानक और वीभत्स के स्थायी भाव । इन भावों के अतिरिक्त रसाभास, भाव, भावाभास, भावोदय, भाव-शान्ति, भाव-सन्धि, भाव-शवलता, रस-मैत्री आदि सभी विपय भाव-जगत के विस्तार में समाविष्ट माने जाते हैं। भाव रस से स्वतन्त्र नहीं है और न भावों के बिना रस की स्थिति है । वे बीज-वृक्ष-न्याय से एक-दूसरे को प्रकाशित करते हैं-'न भावहीनोऽस्तिरसो न भावो रसवर्जितः' (नाव्यशास्त्र -चौखम्या संस्कृत सीरीज, ६३६)। ___ शृङ्गार : रसों में शृङ्गाररस को मुख्यता दी जाती है । उसे रस-राज भी कहते हैं । संयोगात्मक और वियोगात्मक उसके उभय पक्ष होने के कारण उसमें सुखद और दुःखद दोनों ही अनुभाव आजाते हैं और उसका विस्तार बहुत बढ़ जाता है, इसलिए उसमें अधिक-से-अधिक (केवल चार को छोड़कर) सञ्चारी भावों का समावेश हो जाता है। हमारे साहित्यकारों ने शृङ्गार के विभावों (नायक-नायिकाओं) का आवश्यकता से अधिक वर्णन किया है । शृङ्गार की रति में एक विशेष तन्मयता रहती है, यह तन्मयता का भाव सभी रसों में रहता है, इसलिए भी शृङ्गार को प्रधानता मिलती है । रति का अर्थ व्यापक रूप में लिया जाय तो सभी उत्तम भाव इसके अन्तर्गत आजाते हैं। साहित्य- दर्पण में जो इसका लक्षण दिया गया है उसमें उसे दाम्पत्य रति में ही संकुचित नहीं किया है-'रतिमनोनुकलेऽर्थे मनसः प्रवणायितम् ' (साहित्यदर्पण,३।१७६)। मन के अनुकूल अर्थ में मन को प्रेमाद्र या द्रवीभूत होने को रति कहते हैं ('नक जु प्रिय जन देखि सुनि, श्रान भाव चित होय') इसीलिए वात्सल्य को भी इसके अन्तर्गत कर लिया जाता है। यह शब्द रबर की तरह लचीला है। इसमें मन की वृत्ति घोर ऐन्द्रि कता से लगाकर मन की उच्च-से-उच्च अवस्था तथा रहस्य. वाद की ईश्वरोन्मुख प्रेम-दंशा तक पहुँच जाती है । भरतमुनि ने कहा
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