काध्य के -शङ्गार फभी उद्दीपनों के सम्बन्ध में नाना प्रकार के तर्फ करती है :- 'किधौं धन गरजत नहिं उन देसनि ? किधौं वहि इंद्र हठिहि हरि बरज्यो, दादुर खाए सेसनि ।' -~-~भ्रमरगीतसार (पृष्ठ १०८) अथवा पन न आने पर उसका कारण सोचती हैं-'मसि खूटी, कागर जल भीजे, सर दव लागि जरे' (वितर्क सञ्चारी) । इन सब उक्तियों में दैन्य व्यजित है। नन्ददासजी की गोपियों का प्रगट दैन्य देखिए, जिसके प्रागे मर्यादावाद भी पानी भरता है :- 'प्रनत मनोरथ करन, चरन-सरसीरुह पिय के। कह घटि जे है नाथ ! हरत दुख हमरे जिय के ।। कहाँ हमारी प्रीति, कहाँ पिय ! तुब निठुराई । . मनि पखान सौं खर्च, दई तैं कछु न अस्याई ।। -रासपचाध्यायी (३८) गोपियाँ जहाँ इतनी दीन हो सकती थीं वहाँ उनमें कृष्ण के प्रेम का गर्व भी था । यह गर्व हम सूर की गोपियों में कई रूपों में पाते हैं, कहीं तो वे कृष्ण को कालेपन और गोकुल तथा मथुरा की रहन-सहन में अन्तर पर तथा कहीं कुब्जा की शुरूपता पर व्यङ्गय कसती हैं :- 'श्याम विनोदी रे मधुबनियाँ। अब हरि गोकुल काहे को प्रावहिं चाहत नवयौवनियाँ। वे दिन माधव भूलि बिसरि गए गोद खिलाए कनियाँ । गुहि गुहि देते नंद जसोदा तनक काँच के मनियाँ ॥ दिना चारि ते पहिरन सीखे पट पीतांबर तनियाँ । सूरदास प्रभु तजी कामरी अब हरि भये चिकनियाँ ।' --भ्रमरगीतसार ( पृष्ठ ६४). इसके साथ ही दीनतापूर्ण इस त्याग को देखिए :- 'बरजौं न माखन खात कबहूँ, देहौं देन लुटाय । कबहूँ न देहौं उराहनो जसुमति के प्रागे जाय ॥ करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान । कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान ।' --भ्रमरगीतसार (पृष्ठ ६५ तथा ६६) अन्तिम पंक्ति में त्याग की पराकाष्टा आजाती है । सब भावों म रति-मात्र लगा हुआ है, इसीलिए सब सञ्चारी स्थायी भाव की पुष्टि करते हुए रस-
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