पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१४८

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सिद्धान्त और अध्ययन सहसन्याहु-भुज-छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा ।' ___-रामचरितमानस (बालकाण्ड) इसमें गर्व सञ्चारी भी मिला हुआ है । अनुचित बात कहने पर लक्ष्मणजी को रोष पाया था, उसके अनुभाव देखिए :-- माखे लघन कुटिल भइँ भौंहैं । रदपट फरकत नयन रिसोहैं ॥" -रामचरितमानस (बालकाण्ड) वीर:- 'रन-बैरी, सनमुख दुखी, भिक्षुक पाये द्वार । युद्ध, दया और दान हित, होत उछाह उदार ॥' -देवकृत शब्दरसायन (चतुर्थ प्रकाश, पृष्ठ ४१) .. इसका स्थायी भाव उत्साह है। कार्य के करने में आदि से अन्त तक जो प्रसन्नता का भाव रहता है उसे उत्साह कहते हैं । इसका साहित्यदर्पण में लक्षण इस प्रकार दिया गया है :- "कार्यारम्भेषु संरम्भः स्थेयानुत्साह उच्यते ।' । ____ --साहित्यदर्पण (३।१७८) यह केवल युद्ध में ही नहीं वरन् दान देने, दया करने आदि में भी होता है। जिसको जीतना हो वही इसका पालम्बन होता है; उराकी चेष्टाएँ, फौज, हथियारों का प्रदर्शन आदि उद्दीपन हैं। धृति, मति, तर्क, स्मृति, गर्व आदि इसके सञ्चारी हैं। वीर के उद्दीपनस्वरूप महाकवि भूषणकृत महाराज छत्रसाल की 'करवाल' का वर्णन पढ़िए :- 'निकसत म्यान ते मयूबै प्रलै भानु कैसी, फार तम-तोम से गयन्दन के जाल को । लागति लपटि कंठ बैरिन के नागिन सी, रुद्राहि रिझावै दै दै मुडन के माल को ।। लाल छितिपाल क्षमसाल महायाहु बली, कहाँ लौं बखान करौं तेरी करबाल की। प्रतिभट कटक कटीले केते काटि-काटि, , कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को ।' -मिश्रबन्धु-सम्पादित भूषणग्रंथावली (छत्रसाल दशक, पृष्ठ १५७) परशुराम के आगमन पर श्रीरामचन्द्रजी का वीरोचित धैर्य देखिए :....