पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सिद्धान्त और अध्ययन 'ररुया चहुँ दिसि ररत डरत सुनि के नर-नारी । फटफटाइ दोउ पंख उलूकहु रदत पुकारी ।। अंधकारबस गिरत काक अरु चील करत रब । गिद्ध-गरुड़-हड़गिल्ल भजत लखि निकट भयद रव ॥' -सत्य हरिश्चन्द्र ( चौथा प्रक) उद्दीपनों के लिए 'मालती-माधव' का निम्नोद्धृत गद्यांश पठनीय है । पिंजड़े में से शेर के भागने का वर्णन है। शेर आलम्बन है, उसकी चेष्टानों का जो सजीव वर्णन है, वह उद्दीपन का काम करता है :- 'अरे श्रो भाई, मठ के रहने वाला भाग !! भागो !!! यह देखी जवानी के चढ़ाव में, खींच-खींचकर साँकरें तोड़ सिंह लोहे के पिंजड़े से निकल गया है. 'कितने जीव मार डाले । कटारी ऐसे दांतों से हड्डियों कटकटाकर चबाता हुआ मुह बाए इधर-उधर दौड़ रहा है। उनके मांस गले में भरकर गज ना कर रहा है। उसकी डपट से सब लोग भाग रहे हैं।" -मालती-माधव (तृतीय श्रक) इसमें उद्दीपनों के साथ बास सञ्चारी है और भागने का अनुभाव है। अनुभाव का एक और वर्णन कविवर तोपनिधि से नीचे दिया जाता है ...... 'चहुँधा लखि ज्याल कुलाहल भो पुर-लोग सबै दुःख ताप तयो यह लक्क दशा लखि लङ्कपती अति संक दसौ मुख सूखि गयो ।' -कविवर तोषनिधि (नवरस में उत्त, पृष्ठ ५६०) - इसमें मुख सूखना अनुभाव है। साथ हो शङ्का, विषाद और त्रास राऊचारी व्यञ्जित हैं । गोस्वामीजी की कवितावली में लङ्का-दहन के बड़े सुन्दर वर्णन प्राये हैं । उसमें भयानकरस का अच्छा परिपाक हुआ है। भय के सम्बन्ध में मोह सञ्चारी का उदाहरण नीचे देखिए :- 'अध ऊर्ध्व बानर, बिदिसि दिसि बानर है, __मानहु रखो है भरि बानर तिलोकिए । मू दे आँखि हीय में, ऊघारे आँखि पागे ठाढ़ो, धाइ जाइ जहाँ-तहाँ, और कोऊ को किए।' -कवितावली (सुन्दरकाण्ड) भयावह वस्तु मन को इतना पाकान्त कर लेती है कि जिधर देखो उधर वही दिखाई देती है। यही मोह या भ्रम है। पाठक इन वर्णनों को पढ़कर देखेंगे कि भयानक के वर्णन में किस प्रकार रस आता है। साधारणीकरण के शास्त्रीय सिद्धान्त से तो हमें यह बात