पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५३

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काव्य के वयं-अद्भुत ११७ कोई विद्वान् ऐसा भी अर्थ लगाते हैं कि श्रीकृष्णजी का हाथ काला था, काला राहू का रङ्ग है । चन्द्रमा और राहू रिपु हैं । चन्द्रमा म राहू चला जाता है, इसलिए यह सूक्ति की संज्ञा में पायगा । अद्भुतरस का अब उदाहरण लीजिए :- 'इहाँ उहाँ दुई बालक देखा । मति भ्रम मोरि कि भान विसेखा ।' 'तन पुलकित मुख बचन न भावा । नयन {दि चरनन सिर नावा ।' रामचरितमानस (बालकाण्ड) 'मति भ्रम मोरि कि भान विसेखा' में वितर्क सञ्चारी है। माता यह तर्क करती है कि मेरी मति में कुछ भ्रम हो गया है या कुछ और बात है। 'तन पुलकित मुख वचन न श्रावा' में रोमाञ्च और स्वर-भङ्ग अनुभाव (सात्विक भाव) हैं । इन अनुभावों में ही हर्ष सञ्चारी सूचित होता है :- 'केसव ! कहि न जाइ का कहिये । देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये ।।१।। सून्य भीत पर चित्र, रंग नहि, तनु बिनु लिखा चितेरे । धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ।।२।।' -विनयपत्रिका (पद १११) इसमें विस्मय स्थायी तो है ही, साथ में वितर्क सञ्चारी भी व्यजित है। 'केसब कहि न जाइ का कहिए' में विस्मय के साथ माहात्म्य-कथन एक प्रकार का अनुभाव भी है किन्तु यहाँ अद्भुत शान्त का सहायक और पोषक होकर आया है। ___अद्भुतरस का देवजी ने जो उदाहरण दिया है उसमें वृषभानुजी के यहाँ के चकित करने वाले वैभव का वर्णन प्रशंसनीय है। यशोदाजी की दासी को मरिण-खचित मन्दिर में पड़े हुए राधाजी के प्रतिबिम्बों में असली राधाजी को पहचानने में कितनी कठिनाई हुई, यह दर्शनीय है :- 'राधे को न्योति बुलाहबे को, बरसाने लौं हौं, पठई नंदरानी, श्री बृषुभानु की संपति देखि, थकी गतिौ , मतिौ अति बानी । भूलि गई मनि-मंदिर मैं, प्रतिबिंबनि देखि बिशेष भुलानी, चारि घरी लै चितौति-चित्तौति, मरू करि चंद्रमुखी पहिचानी ।' . -देवकृत शब्दरसायन (चतुर्थं प्रकाश, पृष्ठ ४५) इसमें स्तम्भ सात्विक भाव और मोह सञ्चारी है। .. अदभुतरस के लिए भी रसराज होने का दावा किया गया है :-- - 'रसेसारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते । .