पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५४

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११८ सिद्धान्त और अध्ययन । तच्चमत्कारसारत्वेसर्वत्राप्यन्द तो रसः ॥' -धर्मदत्त का मत (साहित्यदर्पण के तृतीय परिच्छेद में कविराज विश्वनाथ द्वारा उद्वत) अर्थात् रस का सार चमत्कार में है जो सर्वत्र दिखाई देता है। चमत्कार का सार होने के कारण सब जगह अद्भुतरस ही है। ____प्राचार्य शुक्लजी ने ऊपर बतलाये हुए अद्भुतरस और सूवित के आधार पर ही इस मत का निराकरण किया है। चमत्कार सूक्ति में होगा, वह अद्भुतरस नहीं हो सकता । नाट्यरस पाठ माने गये हैं। भरतमुनि ने पहले तो पाठही रस गिनाये हैं, पीछे से शान्तरस को गिनाकर उसके स्थायी भाव को और सबमें प्रधानता भी दी है ( इस बात पर सेठ कन्हैयालाल पोद्दार ने 'शान्त बहुत जोर दिया है ) किन्तु पिछले प्राचार्यों ने भी ... जिस प्रकार शान्तरस का वर्णन किया है उसमे यह प्रकट होता है कि शान्तरस को रसों में स्थान देने की परम्परा नहीं रही है। काव्यप्रकाश में भी पहले पाठ ही स्थायी भाव गिनाये गये हैं, पीछे से निर्वेद-प्रधान शान्तरस को गिनाया है-'निर्वेदस्थायिभावाख्यः शान्तोऽपि नवमो रसः' (काव्यप्रकाश, ४।३५) । निर्वेद को सञ्चारियों में पहले स्थान देने के सम्बन्ध में काव्यप्रकाश में लिखा है कि अमङ्गलरूप होने के कारण निर्वेद को पहला स्थान नहीं देना चाहिए था किन्तु यह स्थायी भाव भी होता है इसलिए इसको पहला स्थान दिया गया है :- 'निर्वेदस्यामङ्गलप्रायस्य प्रथममनुपादेत्वेऽप्युपादानं व्यभिचारित्वेऽपि स्थायिताऽभिनार्थे ।' . .-काव्यप्रकाश ( ४।३४ के पश्चात् की वृत्ति) प्रायः अमङ्गलरूप होने से निर्वेद का उल्लेख सञ्चारी भावों के श्रादि में नहीं होना चाहिए था (अमङ्गलसूचक वस्तु को पहले नहीं रखते हैं) परन्तु वह स्थायी भाव भी होता है अतएव सञ्चारी भावों में उसे पहला स्थान दिया गया है। यह बात विचारणीय है कि निर्वेद को भरतमुनि ने व्यभिचारी भावों में क्यों रक्खा ! इसका एक उत्तर 'भक्तिरसामृत-सिन्धु' में दिया गया है कि जब उसकी उत्पत्ति तत्त्वज्ञान से होती है तब तो वह स्थायी भाव होता है और जब इष्ट के अनिष्ट हो जाने से प्राप्त होता है ( 'तिया मुई धन सम्पत्ति नासी, मुड़ मुड़ाय भए संन्यासी') तब वह व्यभिचारी होता है। दूसरी बात यह भी विवेचनीय है कि उन्होंने शृङ्गार, रौद्र, वीर, वीभत्स को प्रधान मानकर उनसे