पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य के वर्य-वात्सल्य और भक्ति को भी शृङ्गार के अन्तर्गत रखना चाहते हैं । ____ वात्सल्य का वर्णन :-इसका स्थायी भाव स्नेह है । पुत्रादि इसके पाल- म्बन हैं और उनकी चेष्टाएँ (तुतलाना आदि क्रियाएँ), विद्या-प्रेम, शौर्यादि गुण, उसके खिलौने, कपड़े आदिभौतिक पदार्थ उद्दीपन हैं । उसका आलिङ्गन, सिर सूधना, उसकी ओर देखना, थपथपाना, रोमाञ्च आदि अनुभाव हैं । शङ्का, हर्ष, गर्व आदि सञ्चारी भाव हैं । वात्सल्य-वर्णन में सूरदासजी का स्थान सर्वोपरि है। वात्सल्य का वर्णन कृष्ण की चेष्टाओं के रूप में नीचे के पद में देखिए :- (क) 'हौं बलि जाउँ छबीले लाल की । धूसरि धूर घुटरुवनि रैंगनि, बोलनि बचन रसाल की ।' --सूरपञ्चरत्न (बालकृष्ण, पृष्ठ १८) (ख) 'तनक मुख की तनक बतियाँ, बोलत हैं तुतराइ । जसोमति के प्रान-जीवन, उर लियौ लपटाइ ।' -सूरसागर (ना० प्र० स०, पृष्ठ ३१७) (क) की पहली पंक्ति वात्सल्य का अनुभावरूप कही जा सकती है । यहाँ कवि का माता से तादात्म्य है और दूसरी में उद्दीपन है । (ख) की पहली पंक्ति में उद्दीपन है और दूसरी पंक्ति में अनुभाव है। दोनों में हर्ष सञ्चारी भी व्यजित है। _गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी उद्दीपनरूप में श्रीरामचन्द्रजी की चेष्टानों का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है :- 'कबहूँ ससि मांगत प्रारि करें, कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं। कबहूँ करताल बजाइकै नाचत, मातु सबै मन मोद भरै ॥ . कबहूँ रिसिप्राइ कहैं हठिकै, पुनि लेत सोई जेहि लागि अरें । अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मन्दिर में बिहरै ।।' -कवितावली (बालकाण्ड) अंतिम पंक्ति इसे शान्तरस या भक्तिरस का रूप दे देती हैं। निम्नोल्लिखित पद में माता की चिन्ता का जो वात्सल्य के सञ्चारियों में से है बहुत ही उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है। कृष्णाजी अपने असली माता-पिता के पास पहुँच जाते हैं किन्तु माता यशोदा की चिन्ता बनी रहती है । 'हौं तो धाय तिहारे सुत की' में बड़ा मार्मिक व्यङ्गय है :- 'संदेसो देवकी सों कहियो । हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो ।