पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ सिद्धान्त और अध्ययन उबटन तेल और तातो जल देखत ही भजि जाते । जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती करम करम करि न्हाते ॥ तुम तौ टेव जानतिहि ह हौ तऊ मोलि कहि श्राधै । . प्रात उठत मेरे लाल लईतेहि माखन-रोटी भाचे ॥' --भ्रमरगीतसार (पृष्ठ १४६ ) कृष्ण के काले होने पर बलरामजी उन्हें खिजाते हैं किन्तु यशोदाजी उनके कालेपन पर ही गर्व करती हुई कृष्ण के मन से हीनता-भाव दूर करने का प्रयत्न करती हैं। इसमें गर्व सञ्चारी का अच्छा उदाहरण है :---- 'मोहन, मानि मनायौ मेरौ । हौं बलिहारी नंद-नंदन की, नैंकु इतै हँसि हेरौ । कारौ कहि-कहि तोहि खिझावत, बरजत खरौ अनेरौ । इद्रनील मनि तँ तन सुदर, कहा कहै बल चेरौ।। न्यारो जूथ हाँ कि लै अपनौ, न्यारी गाय निबेरौ । मेरौ सुत सरदार सबनि कौ, बहुतै कान्ह बढेरौ ।' --सूरसागर (ना०प्र० स०, पृष्ठ ३३४) वात्सल्स के गर्व और शृङ्गार के गर्व में थोड़ा अन्तर है। शृङ्गार का गर्व अपने सम्बन्ध में होता है किन्तु वात्सल्य का गर्व अपने के (अर्थात् पुत्रादि के ) सम्बन्ध में होता है। शङ्का सञ्चारी का भी एक उदाहरण लीजिये :- 'जसोदा बार-बार यों भाष। है ब्रज में कोउ हितू हमारो, चलत गोपाल हि राखे । कहा काज मेरे छगन-मगन को, नृप मधुपुरी बुलायौ ? सुफलक-सुत मेरे प्राण हतन कौँ कालरूप ह पायौ ।' -- सूर-संदर्भ (सरस्वती सीरीज, पद ३६८) 'प्रियप्रवास' से यशोदाजी की वात्सल्यभरी चिन्ता का ' उदाहरण दिया जाता है । यशोदाजी बालकृष्ण को नन्दजी के साथ मथुरा भेजती हुई कहती 'खर पवन सताने लाडिले को न मेरे । दिनकर-किरणों की ताप से भी बचाना। यदि उचित जचे तो छाँह में भी विठामा । मुख-सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे ।' -~-प्रिय-प्रवास (पृष्ठ ५३)