पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१७०

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सिान्त और अध्ययन रस में परस्पर मैत्री और विरोध माना गया है । शत्रु रस एक-दूसरे के बाधक होते हैं। विरोध कई प्रकार का होता है । कुछ रसों का विरोध तो एक पालम्बन में होने से होता है, जैसे जिसके प्रति रति-भाव रस विरोध दिखाया जाय उसके प्रति चीरता का भाव नहीं दिखाना चाहिए। कुछ रसों का विरोध एक आश्रय में होता है, जैसे वीर और भयानक का । एक ही आश्रय को वीरतापरायण दिखाते हुए भयभीत दिखाना वीररस का बाधक होगा। वीर में भय का स्थान नहीं । कुछ रसों का नैरन्तर ( अर्थात् बिना किसी व्यवधान के बीच में पाये ) विरोध रहता है, जैसे शृङ्गार का वीभत्स और शान्त से अथवा वियोगशृङ्गार का वीर से। हास्य और करुण का भी विरोध इसी प्रकार का है। ___मित्ररस, जैसे शृङ्गार और हास्य एक-दूसरे का पोषण करते हैं। देवज़ी ने जन्य-जनक-भाव से रसों में इस प्रकार से मैत्री बतलाई है :-...- 'होत हास्य सिंगार ते, करुण रौद्र ते जानु, यीर जनित अद्भ त कहो, बीभत्स ते भयानु । ये श्रापुस में मित्र हैं, जन्य-जनक के भाइ, मित्र बरनिये, शत्रु तजि, उदासहू रस जाइ ।'


देवकृत शब्दरसायन (चत्तुर्थप्रकाश, पृष्ठ ४५)

इन दोषों का तो सहज ही में परिहार हो जाता है। जिन रसों का एक आलम्बन नहीं हो सकता, उनको भिन्न-भिन्न पालम्बन के सहारे दिखाना दोष नहीं कहलाता, जैसे वीरगाथाकाव्यों में नायिका (संयोगि- विरोध-परिहार ता प्रादि ) के प्रति शृङ्गार भावना रहती है और उसके प्रतिकूल अभिभावकों ( जयचन्द आदि ) के प्रति वीर- भावना का रहना कोई दोष नहीं कहलाता। इसी प्रकार वीर के प्राश्रय में उत्साह और आलम्बन या उससे सम्बन्धित लोगों में भय का दिखाना, जैसा तुलसीदासजी ने यातुधानियों के सम्बन्ध में किया है या भूषण ने मुगलरमणियों के सम्बन्ध में दिखाया है । जहाँ नैरन्तर का दोष हो वहाँ पर बीच में कोई उदासीन या दोनों के मित्ररस को ले पाने से काम बन जाता है, इसका उदा- हरण नागानन्द नाटक से दिया गया है । शान्तरस-प्रधान नायक जीमूतवाहन के मलयवती नायिका से शृङ्गार की बात करने से पूर्व बीच में अद्भुतरस का आजाना इस दोष का परिहार कर देता है। इसी प्रकार वियोग-विह्वल दुष्यन्त को इन्द्र की सहायता के लिए वीर-कार्य में प्रवृत्त करने के अर्थ इन्द्र के दूत मातलि ने उसके प्रिय सखा विदूषक को पीटकर उसके करुणा-भान्दन द्वारा