पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१७३

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। काव्य के वर्य-सारांश १३७ आये हैं, इसलिए दोष नहीं है । अङ्गभूत रसों का यहाँ स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, इसीलिए विरोध नहीं होता है। ऐसे वर्णन अब हमारे हृदय को कम अपील करते हैं। विजेताओं की विजित द्वारा चाटुकारिता को तथा विजित देश की स्त्रियों के साथ कामुकता के व्यवहार को काव्यप्रकाशकार ने भी भावाभास और रसाभास कहा है । भावाभास वाला अंश देखिए :-- . 'अस्माक' सुकृतै शो:ऽनिपतितोऽस्यौचित्यवारांनिधे । विध्वस्ता विपदोऽखिलास्तदिति तैः प्रत्यर्थिभिः स्तूयते ॥' -काव्यप्रकाश (२१११) जिनकी स्त्रियों के प्रति कामुकता का व्यवहार किया जाता है वे ही विजेता से कहते हैं कि हे राजन् ! आप हमारे पूर्वकृत पुण्यों के कारण दृष्टि- गोचर हुए हैं। आप औचित्य का अनुकरण करने वालों में श्रेष्ठ हैं। हमारी सब आपत्तियों का शमन हो गया-चाटुकार राजा की प्रशंसा में उसके बैरियों के दुर्भाग्य की बात कहता है। ऐसे विजित लोगों की, जो लात मारने वाले पद को भी चाटते है, इस युग में भी कभी नहीं। यह मनोवृत्ति अपेक्षाकृत क्षम्य है । भय क्या नहीं कराता किन्तु ऐसा भय उत्पन्न करने के लिए किसी की प्रशंसा करना सर्वथा निन्ध है । पाठक इस प्रसङ्गान्तर को क्षमा करेंगे । रस । में औचित्य का हमेशा ध्यान रखना पड़ता है और चाटुकार लोग इस औचित्य का सर्वथा उल्लङ्घन कर जाते हैं। विशेष : इस विरोध के वर्णन में रस शब्द अधिकांश में अपने स्थायी भाव का ही वाचक है क्योंकि यहाँ. पर वास्तविक आलम्बनों और आश्रयों के भागों से सम्बन्ध है, पाठक या दर्शक के रस से नहीं। काव्य के वर्ण्य के अन्तर्गत विभाव और भाव दोनों ही आते हैं और वे दोनों मिलकर कला का भावपक्ष बनते हैं। रस का पता हम प्रायः उसके सञ्चारियों और अनुभावों द्वारा ही लगाते हैं। काव्य सारांश के अध्ययन और रसास्वाद के लिए इस प्रकार . का रस-विश्लेषण उपयोगी होगा । रस-विश्लेषण भारतीय समीक्षा का मुख्य अङ्ग रहा है । रस पद्य का ही विषय नहीं, गद्य का भी विषय है। भावों के वर्णन में औचित्य का ध्यान अत्यन्त आवश्यक है। उसके बिना रस भी रसाभास हो जाता है। दोषों से रस के परिपाक में बाधा पड़ती है । भावों के मिश्रण में शत्रुता और मैत्री का भी ध्यान रखना पड़ता है। शत्रुता का प्रश्न रुचि-मात्र का प्रश्न नहीं है, उसमें विचार से काम लेना पड़ता है। भारतीय समीक्षा में दोषों का विचार स्थिरतात्मक नहीं है वरन् वह गतिशील है।