पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२०

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( १६ ) को पढ़े जाते हैं । डाक्टर भगीरथ मिश्र के इस ग्रन्थ में नायिका-भेद का ही प्राधान्य है और यह भरतमुनि के 'नाटयशास्त्र' और भानुदत्त की 'रस-मञ्जरी' से भी प्रभावित है। सूरदासजी की 'साहित्य-लहरी' में ( यद्यपि उसकी प्रागाणिकता में सन्देह है ) रोतिकालीन प्रवृत्तियों के बीज मिलते हैं। उनके कूटों में अलङ्कारों के भी उदाहरण हैं :-- 'प्राननाथ तुम ग्रिन ब्रजबाला है गई सबै अनाथ ।' 'कुञ्ज पुज लखि नयन हमारे भंजन चाहत प्रान । - 'सूरदास' प्रभु परिकर अंकुर दीजै जीवन दान ॥' ~-सूरपञ्चरत्न (भ्रमरगीत, पृष्ठ ४५) इसमें नयन ( नय --- न अर्थात् नीति और न्याय का प्रभाव) विशेष्य सार्थक होने से परिकरांकुर अलङ्कार है। . अष्टछाप के दूसरे सुप्रसिद्ध कवि नन्ददासजी ने अपने एक मित्र के हित के लिए नायिका-भेद लिखा था-'एक मीत हम सौं अस गुन्यो, मैं नाइका भेद नहि सुन्यौ' ( उमाशकर शुल्क द्वारा सम्पादित 'नन्ददाल-रसमज्जरी, पृष्ठ ३६ ) । उसमें नायिका-भेद तो है किन्तु उसकी प्रस्तावना भक्तिपूर्ण है। उसमें थोड़ी क्षमा-याचना-की-सी भावना है जिससे प्रतीत होता है कि भक्त होने के नाते उनको नायिका-भेद लिखने का संकोच था :- 'रूप प्रम पानंद रस, जो कुछ जग में श्राहि । ...... सो सब गिरिधर देव को, निधरक बरनौ ताहि ॥' -उमाशकर शुल्क द्वारा सम्पादित 'नन्ददास' में उद्वत (रसमञ्जरी, इसमें हाव-भाव भी है । इसका उद्देश्य प्रेम-तत्व का प्रकाशन है- बिन जाने यह भेद सब, प्रम न परिच होय' । तुलसीदासजी की 'वरवै रामा- यण' में यद्यपि लक्षण नहीं है तथापि उसमें भी अलङ्कारों के उदाहरण उप- स्थित करने की प्रवृत्ति है। यद्यपि प्राचार्य शुल्कजी ने केशवदासजी को रीतिकाल का प्रवर्तक नहीं माना है क्योंकि उनका कहना है कि केशव के पश्चात् ५० वर्ष तक ... रीतिकाल की परम्परा नहीं चली तथापि केशव' में । प्राचार्य केशवदास रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ ( लक्षण देकर उदाहरण उए- .:. स्थित करना) प्रस्फुटित हो चुकी थीं। प्राचार्य शुल्कजी लिखते हैं कि केशव ने संस्कृत काव्य-शास्त्र के विकास-बम : को आगे नहीं