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सिद्धान्त और अध्ययन
 

है, वह तो काव्यगत विभावादि द्वारा उद्बोधित एवं रजोगुण-तमोगुण-विमुक्त, सतोगुण-प्रधान आत्मप्रकाश से जममगाते हुए सहृदय के वासनागत स्थायी भाव का अस्वादजन्य आनन्द है। व्यक्तिगत संस्कार साधारणीकृत होकर टाइप या सांचे बन जाते हैं। टाइप व्यक्ति और साधारण के बीच की चीज है। इन साँचों से मिलने के कारण अखण्ड चिन्मय आत्मप्रकाश में भी बीर, श्रृङ्गारादि के भेद दिखाई पड़ते हैं। वह आनन्द फैलता है, चित्त को व्याप्त कर लेता है, इसी कारण रस कहलाता है।