पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७२ सिद्धान्त और अध्ययन भूमिका' से, जिसमें कि परप्रत्यक्ष होता है, लगाया है। उस दशा में वितक नहीं रहता। इन शब्दों की व्याख्या के लिए यहाँ बाबूजी के उद्धरण से कुछ अंश देना यावश्यक है :--- ____"मधुमती-भूमिका चित्त की बह विशेष अवस्था है जिसमें वितर्क की सत्ता नहीं रह जाती। शब्द, अर्थ और ज्ञान इन तीनों की पृथक् प्रतीति वितर्क है। दूसरे शब्दों में वस्तु, वस्तु का सम्बन्ध और वस्तु के सम्बन्ध। इन तीनों के भेद का अनुभव करना ही वितर्क है। . . . . . . . . . . . . . . 'इस पार्थक्यांनुभव को अपर प्रत्यक्ष भी कहते हैं। जिस अवस्था में सम्बन्ध और सम्बन्धी विलीन हो जाते हैं; केवल वस्तु-मात्र का आभास मिलता रहता है उसे पर प्रत्यक्ष या निर्वितर्क समापत्ति कहते हैं। जैसे, पुत्र का केवल पुत्र के रूप में प्रतीत होना। इस प्रकार प्रतीत होता हुआ, पुत्र प्रत्येक सहृदय के वात्सल्य का पालम्बन हो सकता है।' ___-~-साहित्यालोचन (पृष्ठ २८०) -योग-सूत्रों पर व्यास-भाष्य का उद्धरण देते हुए वे लिखते हैं कि 'मधुमती- भूमिका' का साक्षात्कार करते ही साधक की शुद्ध सात्विकता देखकर देवता अपने-अपने स्थान से उसे बुलाने लगते हैं :---- ..इधर श्राइए, यहाँ रमिए, इस भोग के लिये लोग तरसा करते हैं, देखिये कैसी सुन्दर कन्या है।' -साहित्यालोचन (पृष्ठ २८१) आगे चलकर बाबूजी लिखते हैं :-- _ 'योगी की पहुँच साधना के बल पर जिस मधुमती-भूमिका तक होती है उस भूमिका तक प्रातिभज्ञान-सम्पन्न सल्कवि की पहुँच स्वभावत: हुश्रा करती है।" -साहित्यालोचन (पृष्ठ २५२) इस सम्बन्ध में एक विनोद की बात लिख देना चाहता हूँ ( यद्यपि मुझ इसके लिखने में संकोच अवश्य होता है क्योंकि अपनों से बड़े और विशेषतः स्वर्गीय लोगों की बात के सम्बन्ध में विनोद करना हास्यरसाभास है ) कि 'मधुमती-भूमिका' को प्राप्त कवियों और सहृदयों के लिए यह निमन्त्रण देव- तानों की ओर से अब नहीं पाता, नहीं तो वे देह का भी मोह छोड़ दें। यह विनोद की बात है किन्तु वास्तव में बात यह है कि कवि का सृजनामाद और सहृदय का काव्यरसास्वाद स्वर्गभोग से कम नहीं है। इसके लिए स्वर्ग जाने

का भी कष्ट नहीं करना पड़ता । बाबूजी कवि और पाठक की चित्तवृत्तियों