पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२११

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साधारणीकरण-श्राचार्य शुक्लजी का मत १७५ हम शुक्लजी के मत का उल्लेख कर चुके हैं । आलम्बन के साधारणीकरण का अर्थ उन्होंने आलम्बनत्व-धर्म का साधारणीकरण लिया है अर्थात् पालम्बन ऐसा हो जाता है कि वह समान रूप से सबका पालम्बन बन सके । यह अभिनवगुप्त के मत के अनुकूल है किन्तु वे साहित्यदर्पणकार के मत का भी मोह छोड़ने को तैयार नहीं हैं। दोनों मतों से प्रभावित शुक्लजी के उद्धरण नीचे दिये जाते हैं :- (क) अभिनवगुप्त से प्रभावित' : 'व्यक्ति तो विशेष ही रहता है; पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है जिसके साक्षात्कार से सब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है।' -चिन्तामणि : भाग १ (पृष्ठ ३१३) (ख) साहित्यदर्पण से प्रभावित : "साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष प्राती है वह जैसे काव्य में वर्णित 'पाश्रय' के भाव का पालम्बन होती है वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का श्रालम्बन हो जाती है।' -चिन्तामणि : भाग १ ( पृष्ठ ३१२) सहित्यदर्पण के मत का ही आश्रय लेकर वे आगे लिखते हैं :-- "साधारणीकरण' के प्रतिपादन में पुराने श्राचार्यों ने ( अभिनवगुप्त ने 'नहीं ) श्रोता ( या पाठक) और पाश्रय ( भावव्यन्जना करने वाला पात्र) के तादात्म्य की अवस्था का ही विचार किया है...' . : . -चिन्तामणि : भाग १ ( पृष्ट ३१३) .. (क) और (ख) में इस बात का अन्तर हो जाता है कि (क) के अनुसार पाठक या श्रोता काव्य के आश्रय के साथ नहीं बाँधा जाता । उसका सब सहृदयों के साथ भावसाम्य होता है । (ख) में उसे काव्य के पाश्रय के साथ बंध जाना पड़ता है। यदि आश्रय के साथ तादात्म्य हो जाता है तो प्रायः सब लोगों के साथ भी उसका तादात्म्य हो जाता है किन्तु शुक्लजी ने दिखलाया है कि ऐसी भी अवस्थायें होती हैं जहाँ आश्रय के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता है वरन् कवि वा अन्य सहृदयों के साथ उसका भाव-सादृश्य हो जाता है। उदा- हरणार्थ सीता की भर्त्सना करते हुए रावण के साथ किसी का तादात्म्य नहीं हो सकेगा और न परशुराम के साथ कोई लक्ष्मण पर क्रोध कर सकेगा। ऐसी अवस्था में पाठक का कवि के व्यक्त वा अव्यक्त भाव से या शीलद्रष्टा के रूप में सब सहृदयों के साथ तादात्म्य हो जाता है। १. डाक्टर श्यामसुन्दरदास के मत से