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१७
सिद्धान्त और अध्ययन
किन्तु एक दूसरे प्राचार्य (भोज) पात्र को प्रधानता देते हैं। उनका कथन
है कि कवि की वाणी का थोड़ा-सा चमत्कार यदि वह लोकोत्तर नायक का
वर्णन करता है, तो वह विद्वानों के कानों का आभूषण बन जाता है :----
'कवेरल्पापि वाग्वृत्तिर्विद्वत्कर्णावतंसति ।
नायको यदि वण्येत लोकोत्तरो गुणोत्तरः ॥'
---डाक्टर दास गुप्त के काव्य-विचार से उन्नत (पृष्ठ १४७)
प्रातःस्मरणीय गोस्वामीजी ने भी अपनी कृति की श्रेष्ठता के लिए नायक
को ही महत्ता दी है :-
'एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान-स ति-सारा ॥
भनिति भदेस बस्तु भल वरनी । राम-कथा जग-मंगल करनी ॥'
-रामचरितमानस (बालकाण्ड)
यह मात्रा का प्रश्न है, इसमें अन्तर होना स्वाभाविक है। कवि की कृति
कितनी ही काल्पनिक क्यों न हो उसके लौकिक आधार की विषयगत सत्ता को
अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा । यद्यपि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजी के
सम्बन्ध में महर्षि वाल्मीकि, गोस्वामी तुलसीदास तथा गुप्तजी की भावनाएँ
भिन्न-भिन्न हैं तथापि श्रीरामचन्द्रजी के जीवन का मूल रूप एक-सा ही है ।
जनसाधारण के भाव उनके सम्बन्ध में मिश्रित है, कोई उनको ईश्वर माने या
न माने । कुछ लोगों ने उनको शृङ्गारिक भावनाओं का केन्द्र बनाया किन्तु जन-
साधारण के हृदय में वह स्थान नहीं पा सका । गुप्तजी के इस कथन में कि
-~-'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य
है':-बहुत कुछ सत्य है । कवि अपने ही चश्मे से संसार को देखता है। वह
कच्चा सामान संसार से लेता है और उसे पकाकर प्रास्वादयोग्य बना पाठक
को देता है।
___ साधारणीकरण के सम्बन्ध में हमारे यहां के प्राचार्यों ने थोड़े-बहुत अन्तर
के साथ तीन बातों पर बल दिया है-(१) विभावादिकों का (जिनमें स्थायी
. भाव भी शामिल हैं) साधारणीकरण, (२) पाठक का आश्रय वा कवि के साथ
तादात्म्य, (३) सब पाठकों का समान रूप से प्रभावित होना---इन तीनों ही बातों
का पारस्परिक सम्बन्ध है।
विभावादि जब विशेष सम्बन्धों से मुक्त हो जाते हैं तभी वे सब सहृदयों की
भावना के समान रूप से विषय बनते हैं। जहाँ पाठक या श्रोता का काव्य के
आश्रय के साथ तादात्म्य हो वहाँ बहुधा आपस में भी भाव-साम्य हो जाता
है अर्थात् वे समान रूप से प्रभावित होते हैं और उनका कवि की भावना से भी
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