पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२२३

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कवि और पाठक के यात्मक व्यक्तित्व-पाठक या दर्शक के तीन व्यक्तित्व १८७ नहीं होती वरन् कवि की कल्पना से अनुरजित समाज की आह होती है । कवि की आह से गान ही निकलता है, रुदन नहीं। कवि अपने तीसरे व्य- क्तित्व में अपनी कृति का भी प्रास्वाद लेता है। .. इसी प्रकार पाठक या दर्शक के भी तीन व्यक्तित्व होते हैं। एक तो उसका ल. किक व्यक्तित्व जिसमें वह अपने निजी सुख-दुःख, शारीरिक चिन्ताओं आदि का अनुभव करता रहता है। दूसरा, पाठक या दर्शक के रसास्वादन का साधरणीकृत व्यक्तित्व जो देश-काल के तीन व्यक्तित्व . क्षुद्र बन्धनों से परे होता है। रसिक भूखा रहकर भी .. काव्यास्वाद में कुछ काल तक के लिए अवश्य ( मेरे प्रगतिशील भाई मुझे क्षमा करें ) मग्न रह सकता है । रसिक अपने लौकिक अनुभव में भी कभी-कभी रसास्वाद कर सकता है किन्तु वह तभी होता है जब कि उसमें सात्विकता का प्राधान्य होता है । ममत्व और अहङ्कार से परे होना ही सात्विकता है। ___ साहसी लोगों को भय आदि के स्थलों में भी प्रानन्द प्राता है। उस समय वे निजी व्यक्तित्व और शारीरिक कुशल-क्षेम का ध्यान छोड़ देते हैं किन्तु यह सब लौकिक आनन्द ही है। सुखद अनुभवों से सम्बन्धित शृङ्गा- रादि रसों की रसानुभूति सदृश प्राचार्य कुल्कजी ने इसको रसानुभूति का एक नीचा प्रकार माना है-(चिन्तामणि : भाग १, पृष्ठ ३३६ ) लौकिक अानन्द में व्यक्ति के लिए उपादेयता का भाव लगा रहता है। यह लौकिक और रसानुभूति की बीच की दशा है। काव्यानन्द इससे भिन्न होता है। ऐसे ही बीच की दशा नाटक देखते समय उपस्थित हो जाती है जब कि नाटक के पात्रों को दर्शक वास्तविक समझ लेता है। कहा जाता है कि जब 'नील-दर्पण' नाटक का पहले-पहल अभिनय हुआ था तब एक सज्जन नाटक में प्रशित गोरों के अत्याचार से इतने दुःखित हुए कि वे अपना निजी व्यक्तित्व भूलकर और नाटक को असलियत मानकर स्टेज पर जूता लेकर पहुँच गये और अत्याचारी को मारने लगे। यह तादात्म्य की पराकाष्टा है किन्तु साधारणतया भी दर्शक में प्राश्रय-के-से अश्रु, रोमाञ्चादि अनुभाव प्रकट' हो जाते हैं। यह बीच की ही दशा है। वास्तविक रसानुभूति की दशा कुछ ऊँची है। उसमें पाठक का' साधारणीकृत व्यक्तित्व ही रहता है।