पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४ : काव्य का कलापक्ष (शैली के शास्त्रीय आधार-स्तम्भ ) मात्माभिव्यक्ति की इच्छा मनुष्य म स्वाभाविक है । यह उसकी सामा- जिकता का परिणाम है । वह अपने हृदय के प्रानन्द को दूसरों तक पहुँचाकर उसका मिल-बाँटकर उपभोग करना चाहता है। यदि अभिव्यक्ति की दूसरे साथी न भी हों तो उसे अपने भावों और विचारों श्रावश्यकता को मूत्तिमान् होते हुए देखकर प्रसन्नता होती है. यही कलाओं की प्रेषणीयता (Communicabi- lity) है। मनुष्य के लिए अभिव्यक्ति उतनी ही आवश्यक है जितना कि पुष्प के लिए विकसित होना, इसीलिए (Crentive Necessity) सृजन की (अदम्य) आवश्यकता, कला की एक मूल प्रेरणागों में मानी गई है। 'गूंगे के गुड़ की भांति मन-ही-मन आनन्द लेने वाले कबीर और दादू भी अपने हृदय के उल्लास को अपने तक सीमित न रख सके, साधारण शब्दों ने काम न दिया तो रूपकों और अन्योक्तियों का सहारा लिया गया। गंगा भी 'सेना-बैना' का प्रयोग किये बिना नहीं रह सकता । 'स्वान्तःसुखाय रघुनाथ- गाथा' के लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदासजी को अपनी कृति 'के 'बुधजनों' में आदर पाने की तथा सुजनों को प्रसन्नता देने की गौण रूप से तो अवश्य चिन्ता रही :--- 'भाग छोट अभिलाषु बढ़ करउँ एक बिस्वास । पैहहिं सुख सुनि सुजन सम खल करिहहि उपहास ।' रामचरितमानस (बालकाण्ड) उनका स्वान्तःसुख इस बात में था कि वे अपने इष्टदेव की मर्यादापूर्ण लीलाओं तथा उनकी विमल विरुदावली का गान करें और दूसरे लोग भी उनके साथ गा सके । इसलिए शैली की अपेक्षा वस्तु को अधिक महत्व देते हुए भी ( कवित्त विवेक एक नहि मोरे') तुलसी ने अपने समय की प्रायः सभी प्रचलित शैलियों को अपनाया ही नहीं वरन् अलंकृत भी किया। इस समस्या को आई० ए० रिचर्डस् ( 1. A. Richards ) ने अपनी