पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२३५

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काव्य का कलापक्ष-रस से सम्बन्ध भंद हो सकते हैं चे नहीं कहे जा सकते। गन्ने, दूध और गुड़ के मिठास में अन्तर अवश्य होता है किन्तु उसका वर्णन स्वयं सरस्वती भी नहीं कर सकतीं, देखिये :---- 'इति मार्गद्वयं भिन्नं तस्वरूपनिरूपणात् । तद् दास्तु न शक्यन्ते वक्तु प्रतिकवि स्थिताः ।। इतुक्षीरगुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथापि न तदाख्यातु सरस्वत्यापि शक्यते ॥' -काव्यादर्श (११०१,१०२) प्राचार्य कन्तुल ने इस बात को स्पष्ट करते हुए इसका सम्बन्ध व्यक्ति के स्वभाव से स्थापित किया है। वे कहते हैं कि शक्तिमान् और शक्ति का भेद नहीं किया जा सकता । व्यक्ति के सुकुमारादि स्वभाव के अनुकूल ही उसकी शैली होती है किन्तु वैयक्तिक शैली की विभिन्नता के कारण उसका विभाजन नहीं हो सकता, इसलिए उसके तीन मोटे विभाग किये गये हैं :- 'कविस्वभावभेदनिबन्धनत्वेन काव्यप्रस्थानभेदः समन्जसतां गाहते । सकुमार स्वभावस्य कवेः तथाविधैव सहजाशक्तिः समुद्भवति, शक्तिशक्तिम- तोरभेदात्......यद्यपि कविस्वभावभेदनिबन्धनत्वादनन्तभेदभिन्नत्वमनिवार्य, तथापि परिसंख्यातुमशक्यस्वात् सामान्येन वैविध्यमेवोपपद्यते ।' शैली ही मनुष्य है (Style is the man)--यह सिद्धान्त कुन्तल के विवेचन पढ़ लेने के पश्चात् नया नहीं मालूम पड़ता ।.. ___ यह अवतरण वी० राघवन'की 'Studies on some Concepts of Alankarshastra.' से लिया गया है। मेरे पास जो 'वक्रोक्तिजीवित' है उसमें यह अवतरण नहीं है। 'वक्रोक्तिजीवित' एक खण्डित पुस्तक के आधार पर सम्पादित है। उनका संस्करण पीछे का होगा, जो किसी दूसरी हस्तलिखित पुस्तक के आधार पर सम्पादित किया गया होगा। मेरी प्रति में यह बतलाया गया है कि तीन मार्ग दिग्दर्शन के रूप से ही बतलाये गये हैं। सारे सत्कवियों के कौशल के प्रकार किसी की भी शक्ति नहीं हैं-'एवं मार्ग नितयलक्षणं दिङ- मात्रमेव प्रदर्शितम् । न पुनः साकल्येन सत्कवि कौशल प्रकाराणां केनचिदपि स्वरूपमभिधातु पार्यते' (वक्रोक्तिजीवित, पैंतीसवीं और छत्तीसवीं कारिका की वृत्ति से)--इसमें शैली के व्यक्तित्व की स्वीकृति है। - हमारे यहाँ के आचार्यों ने इस तत्त्व को योरोप की अपेक्षा कुछ अधिक महत्त्व दिया है। कवि-कुल-गुरु कालिदास ने बाक् और अर्थ के मेल को ('वागर्थाविव सम्यक्ती') पार्वती-परमेश्वर के मेल का उपमान बतलाया है।