पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२४१

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काव्य का कलापल-दोष और शैली की श्रावश्यकताए २०१ शिथिल रचनाएँ बारी-बारी से आती हैं, केवल क्रम का अन्तर है। प्रसाद में पहले शिथिल, फिर गाढ़ और समाधि में पहले गाढ़त्व और फिर शिथिलता रहती है । गाढ़त्व और शिथिलता को प्रारोह और अवरोह कहते हैं। इन गुणों से कम-से-कम छः प्रकार की शैलियों का पता चलता है । वे रचनाएँ जिनमें गाढ़त्व या शैथिल्य एक-सा रहता है अथवा जिनमें बारी-बारी से आता है, उनके दो प्रकार होते हैं-एक में पहले शैथिल्य और पीछे गाढ़त्व और दूसरी में पहले गाढ़त्व और पीछे शैथिल्य-कान्तिवाली शैली, अोज तथा प्रसाद और सरलतावाली शैली । काव्यप्रकाश से प्रौढ़ि शैलियों के विभिन्न नाम की एक शैली का पता चलता है जिसमें समास, प्रकार सुगाढ़ (Compact) तथा व्यास अर्थात् फैली हुई शैली का मिश्रण रहता है । एक पद के अर्थ में वाक्य की रचना करना व्यासशैली कहलाती है और वाक्य के अर्थ में एक पद की रचना करना समासशैली कहलाती है । व्यास और समास आजकल के नाम नहीं हैं :--- 'पदार्थे वाक्यरचनं वाक्याथै च पदाभिधा । प्रौढिाससमासौ च साभिप्रायस्वमस्य च ॥' -काव्यप्रदीप (८७ की टीका में उद्धत; पृष्ठ, २८२) अर्थ के सम्बन्ध में इन गुणों का विवेचन इतना लाभदायक न होगा किन्तु उनका भी अध्ययन निष्फल न जायगा। दोषों के विचार से हमको यह बात स्पष्ट होती है कि हमारे आचार्यों ने शैली के सम्बन्ध में अर्थ और शब्द की ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया है । उसी के साथ औचित्य पर भी पूरा विचार किया है। यद्यपि दोष और शैली की वाक्य विचार की इकाई ( Unit of Thought ) है आवश्यकताएँ तथापि दोष शब्द और वाक्य दोनों के ही माने गये हैं। इन दोषों के अध्ययन से हमको शैली-सम्बन्धी निम्नो- ल्लिखित तथ्य मिलते हैं। दोष इसलिए बताये गये हैं कि उनसे रचना को बचाया जाय । यहाँ दोनों के आधार पर कुछ नियम रचना-सम्बन्धी वाञ्छनीय तत्त्वों के रूप में दिये जाते हैं । नियमों के साथ ही उनके उल्लङ्घन से जो दोष उत्पन्न होते हैं उनका उल्लेख कोष्टक में किया गया है :- १. क्लिष्टत्व, अप्रतीत्व तथा अप्रयुक्तदोष:-रचना का सरल और सुबोध होना (क्लिष्टत्वदोष) वाञ्छनीय है और उसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग न होना चाहिए जो पारिभाषित अर्थ में विषय के ज्ञाताओं द्वारा ही समझे जायँ (अप्रतीतत्वदोष) अथवा अप्रचलित हों (अप्रयुक्तदोष), रचना के लिए शब्दों की