पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२४२

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सिद्धान्त और अध्ययन पूरी छान-बीन कर लेनी चाहिए कि वे अर्थव्यवित की सामर्थ्य रखते हैं या नहीं। २. अश्लीलस्व तथा ग्राम्यत्वदोष :-रचना का गौरव अश्लील शब्दों द्वारा (अश्लीलत्वदोष ) या ग्रामीण शब्दों द्वारा (ग्राम्यत्वदोष ) बिगाड़ना वाञ्छनीय नहीं है। ३. अधिकपदत्व तथा न्यूनपदत्यदोष :--रचना चुस्त रहनी चाहिए । न उसमें अधिक पद हो (अधिकपदत्वदोष) और न न्यून पद (न्यूनपदत्यदोष) हों। ४. विपरीत रचना तथा श्रुतिकटुत्वदोष :-रस के अनुकूल शब्दावली का प्रयोग होना चाहिए (विपरीतरचनादोष), शब्दों को साधारणतया भावानुकूल होना वाच्छनीय है। शृङ्गाररस की रचनाओं में कठोर वर्णन न पाना चाहिए (श्रुतिकटुत्वदोष) किन्तु वीर और रौद्र रस में श्रुतिकटुदोष भी गुण हो जाता है। ५. ध्युतिसंस्कृतिदोष :-रचना को व्याकरण-सम्मत होना चाहिए (च्युति- संस्कृतदोष) किन्तु व्याकरण की शुद्धता-मान को रचना का सौष्ठव समझ लेना ठीक न होगा। ६. अभयन्तसम्बन्ध, दूरान्वय, समाप्तपुनरात्त', स्यक्तपुनःस्वीकृत तथा गर्भित दोषत्व:-बाक्य का अन्वय ठीक होना चाहिए (अभवन्मत्सम्बन्ध और दूरान्वयदोष )। वाक्य के समाप्त हो जाने पर, उसके सम्बन्ध की बात फिर न लाई जाय या उसके बीच में दूसरी बात न आजाय (समाप्त पुनरात्तं. त्यक्तपुनः स्वीकृत और गभितदोष), यही बात अनुच्छेदों के सम्बन्ध में भी लागू हो सकती है । वाक्य के समाप्त हो जाने पर फिर उसमें पूछ लगा देना उसे शिथिल वाक्य बना देता है। ___७, अक्रामत्व तथा दुःकमरबदोष:-वाक्य में सङ्गति और क्रम होना चाहिए। किसी वस्तु की महत्ता दिखाकर उसकी हीनता न दिखाई जाय या उसके विपरीत न किया जाय (व्याहत) और उत्थान-पतन एक श्रम से हो । इस सम्बन्ध में अक्रमत्व और दुष्कामत्व आदि दोष अध्ययन करने योग्य हैं, जैसे---- 'राजन् मुझे घोड़ा दो न हो तो हाथी ही दो' (दुष्कभत्व)। अलङ्कार भी शैली को उत्कृष्टता में सहायक होते हैं। वे इतने ऊपरी नहीं हैं जितने कि समझे जाते हैं। उनका भी रस से सम्बन्ध है। इनकी भी उत्पत्ति हृदय के उसी उल्लास से होती है जिससे कि अलङ्कार काव्य-मात्र की-(नारी के भौतिक अलङ्कारों को धारण करने में भी एक मानसिक उल्लास रहता है, उसी उल्लास के अभाव में विधवा स्त्री अलङ्कार नहीं धारण करती )----इसी- ..