पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२४८

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सिद्धान्त और अध्ययन है । मेरी समझ में काव्य के तत्त्व को ध्यान में रखते हुए शैली के गुणों के चार विभाग कर लेना चाहिये ----(१) रागात्मक, (२) तत्वों के बौद्धिक, (३) कल्पना-सम्बन्धी, (४) भाषा-सम्बन्धी । अनुकूल गुण पहले तीन प्रान्तरिक होंगे और चौथा वाह्य कहा जा सकता है। रागात्मक गुणों में प्रभावोत्पादकता, मर्मस्पर्शिता, सजीवता और उल्लास कहे जा सकते हैं। बौद्धिक गुणों में सङ्गति, कम और सम्बद्धता स्थान पायेंगे । कल्पना-संम्बन्धी गुणों में चित्रोपमता मुख्य है। भाषा या शैली में व्याकरण की शुद्धता, सरलता, स्पष्टता, स्वच्छता, लालित्य, लय, प्रवाह आदि गुण उल्लेखनीय है (यहाँ शैली से शैली के बाहरी रूप से अभि- प्राय है), अच्छी शैली में प्रायः ये सभी गुण वाञ्छनीय है किन्तु विषय के अनुकूल' इनका न्यूनाधिक्य हो जाता है। शैली के आन्तरिक और वाह्य दोनों प्रकार के गुणों की आवश्यकता है। सब से पहले हृदय में उल्लास चाहिए । उसके बिना तो शैली में न गति पायगी और न लय, न ओज और न माधुर्य । उल्लास के साथ ही विचारों में राङ्गति, क्रम और सम्बद्धता आवश्यक है, तभी शैली में स्वच्छता और स्पष्टता आयगी । यदि शैली में बौद्धिक नियमों का पालन नहीं होता है तो उसमें प्रसादगुण का अभाव रहेगा। विचारों की उलझन भव्य भाषा के प्रावरण में ढकी नहीं जा : सकती । सुन्दर शरीर नान्तरिक गुणों के बिना मन में उतना ही आकर्षण उप- स्थित करता है जितना कि विषरस भरा कनक-घट । अन्तर और वाह्य का साम्य ही साहित्य शब्द को सार्थकता प्रदान करता है। .