पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२५

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( २१ ) बतलाई है-'शब्दरसायन' नाम यह, शब्द अर्थ रस-सार' । देव ने सब रसों में शृङ्गार को प्रधानता दी है । उन्होंने नौ रसों का सम्बन्ध शृङ्गार के संयोग और वियोगपक्षों से दिखाया है । संयोग का सम्बन्ध हास्य, वीर और अद्भुत से है, वियोग का करुण, रौद्र और भयानक से तथा वीभत्स और शान्तरस का दोनों से। वैसे भी इन्होंने तीन-तीन रसों की तिकड़ी बनाकर शृङ्गार को सर्वोपरि ठहराया है :- 'तीनि मुख्य नव हीर सनि, द्व-द्वै प्रथमनि लीन । प्रथम मुख्य तिनहून में, दोऊ तेहि श्राधीन ॥ .......... हास, भाव, सिंगार रस, रुद्र, करुन रस वीर। .. अग त और वीभत्स संग, सातौ बरनत धीर ॥' . -शब्दरसायन (तृतीय प्रकाश, पृष्ठ ३१) ___ अर्थात् नौ में तीन मुख्य हैं । शृङ्गार, वीर और शान्त इनमें दो-दो विलीन हो जाते हैं जैसा नीचे दिखाया गया है तीनों मुख्य रसों में शृङ्गार में वीर और शान्त विलीन हो जाते हैं :- शृङ्गार वीर शान्त . वीर शान्ता - हास्य भयानक रौद्र करुणा अद्भत वैभत्स ......यदि इसमें थोड़ा परिवर्तन हो जाता तो अधिक व्यवस्थापूर्ण बन जाता। शृङ्गार के साथ हास्य और करुण रख दिये जाते तो संयोग और वियोग में एक-एक बँट जाते. और वीर के साथ रौद्र तथा भयानक रख दिये जाते तो आश्रय में रौद्र पाजाता और पालम्बन में भयानक । शान्त में वीभत्स और अद्भत का योग ठीक ही है । शान्तरस में संसार के प्रति घृणा का भाव रहता है और भगवान् की लीला के प्रति विस्मय का भाव होता है। केशव की भाँति देव ने भी शृङ्गार के प्रच्छन्न और प्रकाश भेद किये हैं। भानुदत्त की 'रस-तरङ्गिणी' के अनुसार देव ने रसों के लौकिक और अलौकिक के रूप में भी भेद किये हैं । अलौकिक के भी तीन भेद किये हैं--(१) स्वापनिक, (२) मनोरथिक और (३) भोपना यिक । देव ने रस की स्थिति को दम्पति