पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२५३

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शब्द-शक्ति-अभिधा .. श्याम और पीला रङ्ग मिलकर हरा रङ्ग हो जाता है। हरा रङ्ग प्रसन्नता का भी द्योतक है । . कभी-कभी शुद्ध अभिधा के प्रयोग बड़े भावव्यञ्जक होते हैं। प्रेमचन्दजी ने घी के अभाव के लिए गोदान' में लिखा था---'घर में अाँख में आँजने तक को भी घी न था' । सूर की स्वभावोक्तियों में अभिधा का ही चमत्कार है, उसमें चाहे रस की अभिव्यक्ति में व्यजना का प्रयोग हो जाय-'संदेसो देवकी सो कहियो' -प्रादि पद इसके उदाहरण हैं । इसलिए न यह कहना ठीक है कि अभिधा में चमत्कार नहीं है या अभिधा निकृष्ट काव्य है और न देव तथा शुक्लजी के साथ यह कहना उचित है कि अभिधा ही उत्तम काव्य है और लक्षणा- व्यञ्जना मध्यम और निकृष्ट काव्य है। प्राचार्य शुक्लजी के अनुकूल 'जीकर हाय ! पतंग मरे क्यों ? (चिन्तामणि : भाग २, पृष्ठ १६६) के व्यङ्गथार्थ में चाहे चमत्कार न हो किन्तु बिना व्यङ्गयार्थ अभिधार्थ प्रायः निरर्थक रहता है। वास्तव में इन शक्तियों को श्रेणीबद्ध करना उचित नहीं है । अपने-अपने स्थान में सभी महत्त्व रंखती हैं। तीनों प्रकार के अर्थों में पूर्ण चमत्कार हो सकता है। ये चमत्कार के प्रकार हैं, दर्ज नहीं हैं। इतना ही तथ्य है कि व्यञ्जना द्वारा चमत्कार की अधिक साधना होती है । लक्षणा में भी व्यञ्जना की कुछ मात्रा है ही। रस में भी व्यञ्जना का काम पड़ता है (कुछ लोग रस को व्यङ्गय नहीं मानते हैं), रस के व्यङ्गय होने का यही अभिप्राय है कि कोरी अभिधा से रस-निष्पत्ति नहीं होती है । अभिधा, लक्षण और स्वयं व्यञ्जना से भी रस की सामग्री मिलती है। अभिधा आदि के अर्थ फूल की भांति हैं, रस फूल के सौरभ की भांति है जो व्यञ्जना की वायु से व्यक्त होता है। आचार्य शुक्लजी ने भी अभिधा को ही मुख्यता दी है । शाब्दिक चमत्कार तथा अभिव्यञ्जनावाद के वे कुछ खिलाफ थे । उसी का यह प्रभाव मालूम होता है। उन्होंने वस्तुव्यञ्जना और रसव्यञ्जना का अलग-अलग व्यापार माना है। इनमें भेद अवश्य है किन्तु इतना ही जितना कि एक व्यापक वस्तु के दो प्रकारों में होता है। इसीलिए संलक्ष्यक्रम और असंलक्ष्यक्रम दो भेद किये गये हैं। रस- व्यञ्जना, व्यञ्जना से बाहर की वस्तु नहीं बन जाती है । यद्यपि वस्तुव्यञ्जना अनुमान के थोड़ा निकट आजाती है तथापि जैसा माना गया है वह अनुमान या उसका प्रसार नहीं है । अनमान के साधन इसमें काम नहीं आते। इसमें व्याप्ति की गुजाइश नहीं । इसम साधारणीकृत होने पर भी एक विशेष से. दूसरे विशेष का परिस्फुटन होता है। - वस्तुव्यञ्जना और रसव्यञ्जना में कल्पना के प्रयोग को मात्रा का ही भेद