पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२५७

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शब्द-शक्ति-लक्षणा के साथ ही लाठी को ग्रहण करने वाले लोग भी सम्मिलित कर अर्थ की पूत्ति कर ली जाती है। 'द्वार रखाये रहना'-यहाँ पर द्वार से अभिप्राय केवल द्वार से ही नहीं, द्वार से सम्बन्धित मकान से भी है। 'द्वार रखाये रहना' का यह अर्थ नहीं है कि केवल द्वार की रक्षा की जाय और सारे घर की परवाह न की जाय । यहाँ पर 'द्वार रखाये रहना' का अर्थ विद्यमान है हो किन्तु इस अर्थ की पूत्ति के लिए और घर-बार भी ले लिया गया है, इसलिए यहाँ पर उपादानलक्षणा है। इसको अजहत्स्वार्था ( अर्थात् जिसने नहीं त्यागा है अपना अर्थ ) लक्षणा भी कहते हैं। जहाँ मुख्यार्थ लक्ष्यार्थ की सिद्धि के लिए अपने को समर्पण कर देता है वहाँ लक्षित अर्थ का ही प्राधान्य होता है। मुख्यार्थ का उपयोग नहीं होता है. इसलिए उसे जहनस्वार्था भी कहते हैं । 'यचइ हरिरूप' में ' चइ' अपने शब्दार्थ (पीना) का बलिदान कर अर्थ की स्पष्टता के लिए सक्रियरूप से देखने और प्रास्वाद लेने के अर्थ को स्वीकार करता है । कभी-कभी अर्थ विल्कुल पलट भी जाता है, जैसे किसी मूर्ख से कहे कि आप तो साक्षात् वृहस्पति हैं तो. वृहस्पति का अर्थ मूर्ख ही होगा। घनानन्द में 'विश्वासी' का प्रयोग 'विश्वास करने के अयोग्य' के अर्थ में हुअा है। ___सारोपा और साध्यवसाना :-यह भेद इस वात पर निर्भर है कि उपमेय पर जो उपमान का आरोप होता है, उसम उपमेय और उसमान दोनों रहते हैं अथवा केवल उपमान से ही काम चलाया जाता है अर्थात् वही उपमेय का स्थान ले लेता है । जब हम श्याम की चपलता घोतित करने के लिए यह कहें कि 'श्याम नाम का लड़का बिजली है तब इस वाक्य में 'श्याम' भी है जिस पर प्रारोप किया गया है और 'बिजली' भी है, जो शब्द 'श्याम' पर आरोपित हुआ है। यहाँ पर सारोपालक्षणा होगी किन्तु यदि हम यह कहें कि 'विजली जा रही है' तब वह साध्यवसानालक्षणा हो जायगी । रूपकातिशयोक्तियों में ( जैसे 'कमल पर दो खजन बैठे हैं', यहां 'कमल' मुख के लिए आया है और 'खञ्जन' नेत्रों के लिए अथवा सूर के 'अद्भुत एक अनूपम बाग' वाले पद में ) साध्यवसानालक्षणा ही लगती है। .... गूढव्यङ्गया, अगूढव्यङ्गया अादि और भी भेद है किन्तु वे गौण हैं । ये, भेद तो व्यङ्गय की गूढ़ता पर आश्रित हैं। यहां पर मात्रा का प्रश्न आ जाता है और यह बात सुननेवाले की शिक्षा-दीक्षा पर भी निर्भर रहती है। मूर्ख के लिए अगूढव्यङ्गया भी गूढ़ हो जायगी । रूढ़ शब्द भी सापेक्ष है । कालान्तर में प्रयोजनवती भी रूढ बन जाती है । 'प्रांग लगाना' अब मुहावरा हो गया है। .