पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२६४

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mame.NAMAAL..aa.kramanAmarnatarancememe- २२८ सिद्धान्त और अध्ययन कुछ प्राचार्यों ने अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना के अतिरिक्त तात्पर्य नाम की एक चौथी वृत्ति भी मानी है । इन लोगों का कथन है कि पृथक-पृथक शब्दों के स्वतन्त्र अर्थ के अतिरिक्त आकांक्षा, योग्यता तात्पर्यवृत्ति और सन्निधि ( एक-दूसरे के निकट होने के भाव ) के ____ सह्योग-सूत्र में बंधे हुए अर्थात् अन्वित शब्दों से बने हुए पूरे वाक्य का अर्थ जिस वृत्ति द्वारा जाना जाता है, उसे तात्पर्यवृत्ति कहते हैं। आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि से युक्त शब्दों से वाक्य बनता है । अकेले शब्द से जिज्ञासा की पूत्ति नहीं होती । पहाड़ या पुस्तवा-मात्र कहने से कोई अर्थ-बोध नहीं होता, इन शब्दों को दूसरे शब्द की चाह रहती है। इसी चाह को आकांक्षा कहते हैं । पहाड़ बर्फ से ढका हुआ है या पुस्तक मेज पर रवखी हुई है, ऐसा कहने से ही जिज्ञासा की पूर्ति होती है । शब्दों में एक-दूसरे के अनु कूल होने की योग्यता भी रहती है। हम यह नहीं कह सकते 'वन्हिना सिन्चति' अर्थात् आग से सींचता है क्योंकि आग में सींचने की योग्यता का अभाव रहता है । इसी योग्यता के अभाव से मुख्यार्थ में बाधा पड़ती है जिसके लिए लक्षणा का काम पड़ता है । इसके अतिरिक्त शब्दों को एक-दूसरे के यथा- स्थान निकट होना चाहिए । यह नहीं कह सकते हैं कि 'शिवदत्त जल है और तरल खाता है, इसका कोई अर्थ न होगा। 'शिवदत्त' के साथ 'खाता है' जायगा और 'जल' के साथ 'तरल है' का अन्वय होगा। इसीलिए दूरान्वयदोष माना गया है । अाज 'देवदत्त' कहकर अगर दूसरे दिन कोई कहे 'खाता है तब भी कोई अर्थ न होगा । इसी पास-पास होने के भाव को सन्निधि कहते हैं, इसका सम्बन्ध देश (शब्दों को साथ-साथ रखने से) और काल (शब्दों के बीच में समय का अनावश्यक व्यवधान न होने से) दोनों रो है । वाक्य को शाब्द इन तीनों से बँधे रहकर अन्वित होते हैं और तभी पदों के पृथक् अर्थ से भिन्न तात्पर्यार्थ. का बोध कराते हैं। अभिहितान्वयवादी :--कुमारिल भट्ट के अनुयायी अभिहितान्वयवादी .. तथा नैयायिक तात्पर्यत्तिं को विशेष रूप से मानते हैं और यह वृत्ति उनके दार्शनिक मत के अनुकल पड़ती है। वे यह मानते हैं कि पद स्वतन्त्र रूप से तो अर्थ देते हैं किन्तु अभिहित ( कोषादि से जिनका अर्थ जाना गया है ) पद आकांक्षा, योग्यता प्रादि द्वारा अन्वित होने पर उन पथक-पृथक पदों से स्व- तन्त्र वाक्य का पूर्ण अर्थ देते हैं । ये लोग श्राकांक्षा, योग्यता, सान्निधि से अँधे हुए शब्दों के अन्ययांश में तात्पर्यवृत्ति मानते हैं। वह अर्थ पदार्थ होता हुग्रा भी अर्थात् किसी एक पद का अर्थ न होता हुआ भी स्वतन्त्र अर्थवाले पदों