पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२६८

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२३२ सिन्हान्त और अध्ययन भी होता है और वाक्य का भी। वाक्य-स्फोट को विशेषता दी गई है। आजकल के लोग ( जिनमें मैं भी शामिल हूँ ) न्याय के मत को अधिक तर्कसम्मत समझेंगे । 'क, म, ल' वर्णों का ही संस्कार नहीं बनता वरन्' उनके क्रम का भी संस्कार बन जाता है । शब्द के नित्य मानने वाले मीमांसकों ने भी स्फोट को नहीं माना है। जिस प्रकार वर्षों से शब्द का अर्थ प्रस्फुटित होता है उसी प्रकार एक अर्थ से दूसरा अर्थ प्रस्फुटित हो जाता है। जिस प्रकार ढोल के साथ डंडे के संयोग और वियोग से बार-बार चोट लगाने पर शब्द उत्पन्न होता है और क्रमागत तरङ्गों द्वारा वह हमारे कान तक पहुँचता है, उसी प्रकार शब्द की अंतिम ध्वनि (Sound) से शब्द के अर्थ को व्यक्त करने वाला स्फोट होता है और काव्य में अर्थ के अर्थ को व्यक्त करने वाली ध्वनि होती है। वह घण्टा बज जाने पर आपकी अन्तिम कान में गूंजनेवाली झङ्कार की भाँति होती है। जिस प्रकार व्यक्त शब्द अव्यक्त स्फोट को व्यक्त करता है उसी प्रकार शब्दार्थ व्यञ्जना द्वारा भीतरी व्यङ्गयार्थ को बाहर ले पाता है । देखिए :....... 'स संयोगवियोगाभ्यां करणैरपजन्यते । स स्फोटः शब्दजः शब्दो ध्वनिरित्युच्यते धुधैः॥" -भत हरिः ध्वनि के ५१ भेद माने गये हैं, लक्षणा के ६४ थे। हमारे यहाँ के भेदों को देखकर दूसरे साहित्यवाले ब्राह्मणों की पंक्ति में बैठे हुए छपावेशधारी मुसलमान की भाँति चिल्ला उठते है 'या अल्लाह ध्वनि के भेद गौड़ों में भी और' और मैं उन भेदों को गौड़ों तक . यानी मोटे-मोटे भेदों तक ही सीमित रक्खू गा । जिस प्रकार व्यञ्जना अभिवामूलक और लक्षणामूलक होती है उसी प्रकार ध्वनि भी अभिधामूलक और लक्षणामूलक होती है। अभिधामूलक को विवक्षितान्य- परवाच्य (अर्थात् उसके वाच्यार्थ का अस्तित्व रहकर दूसरा अर्थ रहता है ) कहते हैं और लक्षणामूलक को अविवक्षितवाच्य ( अर्थात् उसमें वाच्यार्थ की विवक्षा, कहने की इच्छा, नहीं रहती ) क्योंकि उसमें तो वाच्यार्थ का बाध हो जाता है । लक्षाणामूलक ध्वनि के उपादान और' लक्षाणलक्षणा के अाधार पर दो भेद हो जाते हैं। उपादानलक्षणा पर आश्रित भेव को अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य- ध्वनि अर्थात् दूसरे (उसमें गिलते हुए अर्थ में) वाच्यार्थ रांगागित हो जाता है एक दूसरी पुस्तक में 'ध्यनिरिस्युच्यते बुधैः' के स्थान पर 'ध्वनयोरन्यै रुदा. हताः