पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२७

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( २३ ) कर दी है :- 'ज्यों जीवात्मा में रहै, धर्म सूरता प्रादि । त्यों रस ही में होत गुन, बरनै गर्ने सबादि ॥ रस ही के उतकर्ष को, अचल स्थिति गुन होय । अंगी धरम सुरूपता, अंग धरम नहिं कोय ॥' -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय (श्लेषालङ्काराति-वर्णन, ६२ तथा ६३) 'काव्यनिर्णय' में रस का वर्णन ध्वनि के अन्तर्गत नहीं किया गया जैसा 'काव्यप्रकाश' में है वरन् उसका वर्णन स्वतन्त्र हुआ है । दासजी ने रस कों रसवत् अलङ्कार के अन्तर्गत नहीं माना है, जैसा कि दण्डी और केशव ने • माना है वरन् 'साहित्यदर्पण' की भाँति रसवत् अलङ्कार वहाँ माना है जहाँ कोई रस किसी रस या भाव का अङ्ग होता है । रसवदादि को रस का अपराङ्ग भी कहा है :- 'रस भावादिक होत जहँ, युगल परस्पर अंग। तह अपरांग कहैं कोऊ, कोउ भूषन इहि ढंग ॥ रसवत प्रथा उर्जशी, समाहितालंकार । भावोदवत सन्धिवत, और सबलवतसार ॥' -भिखारीदासकृत काव्यनिर्णय ( अपरांग-वर्णन, १ तथा २) " ये पंक्तियाँ 'साहित्यदर्पण' की निम्नोल्लिखित कारिकाओं का अनुवाद प्रतीत होती हैं :- 'रसभाचौ तदाभासौ भावस्य प्रशमस्तथा ॥ गुणीभूतत्वमाभान्ति यदालंकृतयस्तदा । रसवत्न य ऊर्जस्वि समाहितमिति क्रमात ॥' -साहित्यदर्पण (१०। ७५, ७६) जहाँ (१) रस, (२) भाव, (३) उनके आभास तथा (४) भावशान्ति दूसरे रस के साथ गौण होकर अङ्ग बनते हैं वहाँ वे अलङ्कार हो जाते हैं और उनका नाम क्रमशः रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्व और समाहित होता है ( काव्य- प्रकाशकार का भी प्रायः ऐसा ही मत है)। - 'काव्यनिर्णय' में अलङ्कारों को स्वतन्त्र रूप से महत्ता नहीं दी गई है । जहाँ पर केवल अलङ्कार होते हैं वहाँ काव्य अपर काव्य कहलाता है, जहाँ वे गुणों के साथ किन्तु व्यङ्गय के बिना होते हैं वहाँ यह मध्यम काव्य होता है और जहाँ व्यञ्जना के साथ रस, अलङ्कार आदि पाते हैं वहाँ उत्तम काव्य होता है। इस प्रकार व्यञ्जना को पर्याप्त प्रधानता मिल जाती है। .