पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/२८६

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-awan.mmasumurenaxe- - - - - २५४ सिद्धान्त और अध्ययन ३।२६२) । क्षेमेन्द्र ने औचित्य को सपिरि रवखा है-'शौचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्' (ौचित्य-विचार-चर्चा) । प्राचीन प्राचार्यों ने काव्य को नीति रो अछूता नहीं माना है। नीतिकार केवल उपदेश देता है, काव्यकार उसे कान्ता के वचनों-का-सा गृदुल और मनोहर बना देता है। 'कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे' को गम्गट ने काव्य के प्रयोजनों में माना है किन्तु उन्होंने काव्य को 'नियतिकृत नियमरहिता' कहकर ब्रह्मा की सृष्टि के नियमों से स्वतन्त्र रखा है। __गोस्वामी तुलसीदास :-गोस्वामीजी ने अपने काव्य को 'स्वान्तःसुखाय' लिखा हुआ कहा है -'स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, भाषानिबन्ध- मतिमंजुलमातनोति' (रामचरितमानस, बालकाण्ड) । स्वान्तःसुखाय कलावाद का शुद्धतम रूप है। तुलसी की कला, यश, धन और मान-प्रतिष्ठा के प्रलोभनों से परे थी किन्तु नीति और मर्यादा- पालन से विशिष्ट थी। उनके लिए श्रेय और प्रेय में अन्तर न था। ऐसे लोगों के लिए जिनका अन्तःकरण विकृत है, स्वान्तःसुखाय बड़ी भयानक वस्तु हो जाती है । वास्तव में तुलसीदासजी के स्वान्तःसुखाय का उतना ही अर्थ है कि वे उसे अर्थ के प्रलोभन से परे रखना चाहते थे। तभी तो उनको बुधजनों के पादर की फिक्र थी और इसीलिए उन्होंने लिखा है :---- 'जो प्रबन्ध बुध नहिं श्रादरही । सो श्रम वादि बाल कवि करहीं ।' -रामचरितमानस (बालकाण्ड) यही कला की प्रेषणीयता है। तुलसीदास की कविता का प्रादर्श कोरा कलावाद न था, वे पूर्ण हितवादी थे : ---- 'कीरति भणित भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कह हित होई ॥' रामचरितमानस (बालकाण्ड) काव्य और नीति का प्रश्न बड़ा जटिल है। जो लोग काव्य को नीति से परे रखना चाहते हैं वे उसके क्षेत्र में सौन्दर्य का अबाधित राज्य देखना चाहते - हैं किन्तु काव्य के राज्य को हम यदि व्यापक माने और उपसंहार उसका अधिकार पूरे जीवन पर समझा जाय तो उसमें सत्यं, शिवं और सुन्दरम् तीनों का समन्वय होना चाहिए । काव्य का क्षेत्र रेखागणित की भाँति संकुचित नहीं है। स्पिनगर्न की तरह रेखागणित के उपमान पर काव्य को नीति-निरपेक्षा कहना उचित न होगा। जितना ही राज्य व्यापक होगा, उतना ही बन्धन अधिक होगा और उतने ही अंश में दूसरों से अनुकूलता प्राप्त करनी पड़ेगी।